राम भक्त शबरी की कहानी

यह कथा त्रेता युग के समय की है जब प्रभु श्री राम ने 14 वर्ष का वनवास लिया था और रावण द्वारा माता सीता हर ले जाने के बाद प्रभु राम और लक्ष्मण माता सीता की खोज में निकले थे। आईए जानते हैं एक ऐसे भक्त के जीवन के बारे में जो वर्षों तक अपने प्रभु श्री राम के आने की विश्वास में अपना संपूर्ण जीवन प्रतीक्षा में लगा दिया तो चलिए जानते हैं श्री राम भक्त शबरी की कहानी।

त्रेतायुग का समय है, वर्णाश्रम धर्मकी पूर्ण प्रतिष्ठा है, वनोंमें स्थान-स्थानपर ऋषियोंके पवित्र आश्रम बने हुए हैं। तपोधन ऋषियोंके यज्ञभूमसे दिशाएँ आच्छादित और वेदध्वनिसे आकाश मुखरित हो रहा है। ऐसे समय दण्डकारण्यमें पति-पुत्र- विहीना, भक्ति- श्रद्धा सम्पन्ना एक वृद्धा भीलनी रहती थी, जिसका नाम था शबरी।

माता शबरी का सेवा भाव

माता शबरीने एक बार मतंग ऋषिके दर्शन किये। संतदर्शनसे उन्हें परम हर्ष हुआ और उन्होंने विचार किया कि यदि मुझसे ऐसे महात्माओंकी सेवा बन सके तो मेरा कल्याण होना कोई बड़ी बात नहीं है। यह सोचकर उन्होंने ऋषियोंके आश्रमोंसे थोड़ी दूरपर अपनी छोटी-सी कुटिया बना ली और कन्द-मूल-फलसे अपना उदर पोषण करती हुई अपनेको नीच समझकर वह अप्रकटरूपसे ऋषियोंकी सेवा करने लगी। जिस मार्गसे ऋषिगण स्नान करने जाया करते, उष:कालके पूर्व ही उसको झाड़ बुहारकर साफ कर देती, कहीं भी कंकड़ या काँटा नहीं रहने पाता।

इसके सिवा वह आश्रमोंके समीप ही सुबह होने से पहले ही ईधनके सूखे ढेर लगा देती। कैंकरीले (कंकर )और कैटीले रास्ते को निष्कण्टक (आईटी बिना कांटो के)और कंकड़ोंसे रहित देखकर तथा द्वारपर समिधाका (हवन की लकड़ी)संग्रह देखकर ऋषियोंको बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने अपने शिष्योंको यह पता लगानेकी आज्ञा दी कि प्रतिदिन इन सभी कामको कौन कर जाता है। आज्ञाकारी शिष्य रातको पहरा देने लगे और उसी दिन रातके पिछले पहर शबरी ईंधनका बोझा रखती हुई पकड़ी गयी।

शबरी बहुत ही डर गयी। शिष्यगण उसे मतंग मुनिके सामने ले गये और उन्होंने मुनिसे कहा कि ‘ गुरुदेव ! प्रतिदिन रास्ता साफ करने और ईंधन रख जानेवाले चोरको आज हमने पकड़ लिया है। यह भीलनी ही प्रतिदिन ऐसा किया करती है।’ शिष्योंकी बातको सुनकर भयभीत शबरीसे मुनिने पूछा, ‘तू कौन है और किसलिये प्रतिदिन मार्ग बुहारने और ईंधन लानेका काम करती है?’ भक्तिमती शबरीने काँपते हुए अत्यन्त विनयपूर्वक प्रणाम करके कहा, ‘नाथ मेरा नाम शबरी है. मन्द भाग्यसे मेरा जन्म नीच कुलमें हुआ है, मैं इसी वनमें रहती हूँ और आप-जैसे तपोधन मुनियोंके दर्शनसे अपनेको पवित्र करती हूँ। अन्य किसी प्रकारकी सेवामें अपना अनधिकार समझकर मैंने इस प्रकारकी सेवामें ही मन लगाया है।

भगवन् आपकी सेवाके योग्य नहीं कृपापूर्वक मेरे अपराधको क्षमा करें। शबरीके इन दीन और यथार्थ वचनोंको सुनकर मुनि मतंगने दयापरवश हो अपने शिष्योंसे कहा कि ‘यह बड़ी भाग्यवती है, इसे आश्रमके बाहर एक कुटियामें रहने दो और इसके लिये अन्नादिका उचित प्रबन्ध कर दो।’ ऋषिके दयापूर्ण वचन सुनकर शबरीने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और कहा-‘कृपानाथ! मैं तो कन्दमूलादिसे ही अपना उदर-पोषण कर लिया करती हूँ। आपका अन्न प्रसाद तो मुझे इसीलिये इच्छित है कि इससे मुझपर आपकी वास्तविक कृपा होगी, जिससे मैं कृतार्थ हो सकूँगी। मुझे न तो वैभवकी इच्छा है और न मुझे यह असार संसार ही प्रिय लगता है। दीनबन्धो ! मुझे तो आप ऐसा आशीर्वाद दें कि जिससे मेरी भगवान में प्रीति हो।’ विनयावनत श्रद्धालु शबरी के ऐसे वचन सुनकर मुनि मतंगने कुछ देर सोच-विचारकर प्रेमपूर्वक उससे कहा-‘ कल्याणि तु निर्भय होकर यहाँ रह और तू भगवान्‌के नामका जप किया कर।

मतंग ऋषि का भगवत धाम गमन

मतंगऋषिकी कृपासे शबरी जटा – चीर-धारिणी होकर भागवतभजन में निरत हो आश्रम में रहने लगी। अन्यान्य ऋषियोंको यह बात अच्छी नहीं लगी। उन्होंने मतंग ऋषिसे कह दिया कि “आपने नीच जाति शबरीको आश्रममें स्थान दिया है, इससे हमलोग आपके साथ भोजन करना तो दूर रहा, सम्भाषण भी करना नहीं चाहते।’ भक्तितत्वके मर्मज्ञ मतंगने इन शब्दोंपर कोई ध्यान नहीं दिया। वे इस बातको जानते थे कि ये सब भ्रममें हैं, शबरीके स्वरूपका इन्हें ज्ञान नहीं है, शबरी केवल नीच जातिकी साधारण स्त्री ही नहीं है, वह एक भगवद्भक्तिपरायणा उच्च आत्मा है।

उन्होंने इसका कुछ भी विचार नहीं किया और वे अपने उपदेशसे शबरीको भक्ति बढ़ाते रहे। इस प्रकार भगवद्गुण-स्मरण और गान करते-करते बहुत समय बीत गया। मतंग ऋषिने शरीर छोड़ने की इच्छा की, यह जानकर शिष्योंको बड़ा दुःख हुआ, शबरी अत्यन्त क्लेशके कारण क्रन्दन करने लगी। गुरुदेवका परमधाममें पधारना उसके लिये असहनीय हो गया। वह बोली- ‘नाथ! आप अकेले ही न जायें, यह किङ्करी भी आपके साथ जानेको तैयार है।

“विषण्णवदना कृताञ्जलि दीना शबरीको सम्मुख देखकर मतंग ऋषिने कहा- ‘सुव्रते ! तू यह विषाद छोड़ दे, कोसलकिशोर भगवान् श्रीरामचन्द्र इस समय चित्रकूटमें हैं। वे यहाँ अवश्य पधारेंगे। उन्हें तू इन्हीं चर्म चक्षुओंसे प्रत्यक्ष देख सकेगी, वे साक्षात् परमात्मा नारायण हैं। उनके दर्शनसे तेरा कल्याण हो जायगा। भक्तवत्सल भगवान् जब तेरे आश्रममें पधारें, तब उनका भलीभाँति आतिथ्य करके अपने जीवनको सफल करना। तबतक तू श्रीराम-नामका जप करती हुई उनकी प्रतीक्षा कर।”

माता शबरी की प्रतीक्षा

शबरीको इस प्रकार आश्वासन देकर मुनि मातंग दिव्यलोकको चले गये। इधर शबरीने श्रीराम-नाममें ऐसा मन लगाया कि उसे दूसरी किसी बातका ध्यान ही नहीं रहा। शबरी कन्द-मूल-फलोंपर अपना जीवन निर्वाह करती हुई भगवान् श्रीरामके शुभागमनकी प्रतीक्षा करने लगी। ज्यों-ही-ज्यों दिन बीतते हैं, त्यों-ही-त्यों शबरीकी राम दर्शन- लालसा प्रबल होती जाती है। जरा-सा शब्द सुनते ही वह दौड़कर बाहर जाती है और बड़ी आतुरताके साथ प्रत्येक वृक्ष, लता, पत्र, पुष्प और फलोंसे तथा पशु-पक्षियोंसे पूछती है कि ‘अब श्रीराम कितनी दूर हैं, यहाँ कब पहुँचेंगे?’ प्रातःकाल कहती है कि भगवान् आज सन्ध्याको आयेंगे। सायंकाल फिर कहती है, कल सवेरे तो अवश्य पधारेंगे।

कभी घरके बाहर जाती है, कभी भीतर आती है। कहीं मेरे रामके कोमल चरणकमलोंमें चोट न लग जाय, इसी चिन्तासे बार-बार रास्ता साफ करती और काँटे कंकड़ोंको बुहारती है। घरको नित्य गोवर – गोमूत्रसे लीप-पोतकर ठीक करती है। रोज नयी मिट्टी-गोबरकी चौकी बनाती है। कभी चमककर उठती है, कभी बाहर जाती है और सोचती , भगवान् बाहर आ ही गये होंगे। वनमें जिस पेड़का फल सबसे अधिक सुस्वाद और मीठा लगता है, वही अपने रामके लिये बड़े चावसे रख छोड़ती है।

इस प्रकार शबरी उन राजीवलोचन रामके शुभ दर्शनकी उत्कण्ठासे ‘रामागमनकाङ्क्षया'(राम के आगमन की आकांक्षा से) पागल सी हो गयी है। सूखे पत्ते वृक्षोंसे झड़कर नीचे गिरते हैं तो उनके शब्दको शबरी अपने प्रिय रामके पैरोंको आहट समझकर दौड़ती है। इस तरह आठों पहर उनका चित्त श्रीराममें रमा रहने लगा, परंतु राम नहीं आये। एक बार मुनिबालकोंने कहा- ‘शबरी! तेरे राम आ रहे हैं।’ फिर क्या था। बेर आदि फलोंको आँगनमें रखकर वह दौड़ी सरोवरसे जल लानेके लिये। प्रेमके उन्मादमें उन्हें शरीरकी सुधि नहीं थी।

एक ऋषि स्नान करके लौट रहे थे। शबरीने उन्हें देखा नहीं और उनसे उसका स्पर्श हो गया। मुनि बड़े क्रुद्ध हुए। वे बोले-‘कैसी दुष्टा है! जान-बूझकर हमलोगोंका अपमान करती है। शबरीने अपनी धुन में कुछ भी नहीं सुना और वह सरोवरपर चली गयी। ऋषि भी पुनः स्नान करनेको उसके पीछे-पीछे गये। ऋषिने ज्यों ही जलमें प्रवेश किया, त्यों ही जलमें कीड़े पड़ गये और उसका वर्ण रुधिर-सा हो गया। इतनेपर भी उनको यह ज्ञान नहीं हुआ कि यह भगवद्भक्तिपरायणा शबरीके तिरस्कारका फल है।

प्रभु श्री राम का आगमन

इधर जल लेकर शबरी पहुँचने ही नहीं पायी थी कि दूरसे भगवान् श्रीराम ‘मेरी शबरी कहाँ है?” पूछते हुए दिखायी दिये। यद्यपि अन्यान्य मुनियोंको भी यह निश्चय था कि भगवान् अवश्य पधारेंगे, फिर भी उनकी ऐसी धारणा थी कि वे सर्वप्रथम हमारे ही आश्रमोंमें पदार्पण करेंगे। परंतु दीनवत्सल भगवान् श्रीरामचन्द्र जब पहले उनके यहाँ न जाकर शबरीकी कुटिया का पता पूछने लगे, तब उन तपोबलके अभिमानी मुनियोंको बड़ा आश्चर्य हुआ। शबरीके कानोंमें भी सरल ऋषि बालकोंके द्वारा यह बात पहुँची। श्रीरामका अपने प्रति इतना अनुग्रह देखकर शबरीको जो सुख हुआ, उसकी कल्पना कौन कर सकता है।

इतनेमें ही भगवान् श्रीराम लक्ष्मणसहित शबरीके आश्रममें पहुँचे —
सबरी देखि राम गृहँ आए। मुनि के बचन समुझि जिय भाए॥

सरसिज लोचन बाहु बिसाला जटा मुकुट सिर उर नमाला ॥

स्याम गौर सुंदर दोउ भाई सबरी परी चरन लपटाई॥

प्रेम मगन मुख वचन न आवा। पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा (रामचरितमानस)

आज शबरीके आनन्दका पार नहीं है। वह प्रेममें पगली होकर नाचने लगी। हाथसे ताल दे-देकर नृत्य करनेमें वह इतनी मग्र हुई कि उन्हें अपने उत्तरीय वस्त्रतक का ध्यान नहीं रहा, शरीरकी सारी सुध-बुध जाती रही। इस तरह शबरीको आनन्दसागरमें निमन देखकर भगवान् बड़े ही सुखी हुए और उन्होंने मुसकराते हुए लक्ष्मणकी ओर देखा। तब श्रीलक्ष्मणजीने हँसते हुए गम्भीर स्वरसे कहा कि ‘शबरी! क्या तू नाचती ही रहेगी? देख श्रीराम कितनी देर से खड़े हैं ? क्या इनको बैठाकर तू इनका आतिथ्य नहीं करेगी ?” इन शब्दोंसे शबरी को चेत हुआ और उस धर्मपरायणा तापसी सिद्धा संन्यासिनीने श्री राम-लक्ष्मणको देखकर उनके चरणोंमें हाथ जोड़कर प्रणाम किया और पाद्य, आचमन आदिसे उनका पूजन किया।

सादर जल ले चरन पखारे पुनि सुंदर आसन बैठारे ॥

राम भक्त शबरी

भगवान् श्रीराम उस धर्मनिरता शबरीसे पूछने लागे तपोधने ! तुमने साधनके समस्त विघ्नोंपर तो विजय पायी है ? तुम्हारा तप तो बढ़ रहा है ? तुमने कोप और आहारका संयम तो किया है ? चारुभाषिणि! तुम्हारे नियम तो सब बराबर पालन हो रहे हैं? तुम्हारे मनमें शान्ति तो हैं ? तुम्हारी गुरुसेवा सफल तो हो गयी ? अब तुम क्या चाहती हो ?’

श्रीरामके ये वचन सुनकर वह सिद्धपुरुषोंमें मान्य वृद्धा तापसी बोली- भगवन् ! आप मुझे ‘सिद्धा’ ‘सिद्धसम्मता’ ‘तापसी’ आदि कहकर लज्जित न कीजिये। मैंने तो आज आपके दर्शनसे ही जन्म सफल कर लिया है। हे भगवन् ! आज आपके दर्शनसे मेरे सभी तप सिद्ध हो गये हैं, मेरा जन्म सफल हो गया। आज मेरी गुरुओंकी पूजा सफल हो गयी; मेरा तप सफल हो गया। हे पुरुषोत्तम! आप देवताओंमें श्रेष्ठ रामकी कृपासे अब मुझे अपने स्वर्गापवर्गमें कोई सन्देह नहीं रहा।

शबरी अधिक नहीं बोल सकी। उनका गला प्रेमसे रुँध गया। थोड़ी देर चुप रहकर फिर बोली ‘प्रभो! आपके लिये संग्रह किये हुए कन्द-मूल फलादि तो अभी रखे ही हैं। भगवन् ! मुझ अनाथिनीके फलोंको ग्रहणकर मेरा मनोरथ सफल कीजिये।’ यों कहकर शबरी फलोंको लाकर भगवान्‌को देने लगी और भगवान् बड़े प्रेमसे पवित्र प्रेम – रससे पूर्ण उन फलोंकी बार-बार सराहना करते हुए उन्हें खाने लगे।

पद्मपुराणमें भगवान् व्यासजीने कहा है —

फलानि च सुपक्वानि मूलानि मधुराणि च ।
स्वयमास्वाद्य माधुर्यं परीक्ष्य परिभक्ष्य च ॥ पश्चान्निवेदयामास राघवाभ्यां दृढव्रता ।
फलान्यास्वाद्य काकुत्स्थस्तस्यै मुक्तिं परां ददौ ॥

शबरी वनके पके हुए मूल और फलोंको स्वयं चख चखकर परीक्षा करके भगवान्‌को देने लगी। * जो अत्यन्त मधुर फल होते वही भगवान्‌के निवेदन करती और भगवान् मानो कई दिनोंके भूखे हों, ऐसे चाव और भावसे उनको पाने लगे।

बेर बेर बेर लै सराहें बेर बेर बहु,

‘रसिकबिहारी’ देत बंधु कहँ फेर फेर ।

चाखि चाखि भाखँ यह वाहू तें महान मीठो,

लेहु तो लखन यों बखानत हैं हेर हेर ।।

बेर बेर देवेको सबरी सुबेर बेर

तोक रघुबीर बेर बेर ताहि टेर टेर

घेर जनि लाओ बेर बेर जनि लाओ बेर,

थेर जनि लाओ बेर लाओ कहें घेर बेर।।

यही नहीं, भगवान् श्रीराघवेन्द्र शबरीजीके इन प्रेमसुधा रसपूर्ण फलोंका स्वाद कभी नहीं भूले घरमै, गुरुजीके यहाँ, मित्रोंके घरपर, ससुरालमें- जहाँ कहीं इनका स्वागत-सत्कार हुआ, भोजन कराया गया, वहीं ये शबरीके फलोंकी सराहना करना नहीं भूले-

घर, गुरुगृर्ह, प्रियसदन, सासुरे भइ जब जहँ पहुनाई।

तब त कहि सबरी के फलनि को रुचि माधुरी न पाई ।।

इस तरह भक्तवत्सल भगवान्के परम अनुग्रहसे शबरीने अपनी मनोगत अभिलाषा पूर्ण हुई जानकर परम प्रसन्नता लाभ की। उसके बाद वह हाथ जोड़कर सामने खड़ी हो गयी। प्रभुको देख-देखकर उसकी प्रीति सरितामें अत्यन्त बाढ़ आ गयी। माता शबरी ने कहा-

केहि विधि अस्तुति करों तुम्हारी।

अधम जाति मैं जड़मति भारी॥

अधम ते अधम अधम अति नारी।

तिन्ह महँ मैं मतिमंद अधारी ॥

आर्तत्राणपरायण पतितपावन भक्तवत्सल श्रीरामने उत्तरमें कहा, ‘भामिनि! तुम मेरी बात सुनो। मैं एकमात्र भक्तिका नाता मानता हूँ। जो मेरी भक्ति करता है, वह मेरा है और मैं उसका हूँ। जाति-पांति, कुल, धर्म, बड़ाई, द्रव्य, बल, कुटुम्ब, गुण, चतुराई-सब कुछ हो; पर यदि भक्ति न हो तो वह मनुष्य बिना जलके बादलोंके समान शोभाहीन और व्यर्थ है।’

अध्यात्मरामायण में भगवान् श्रीराम कहते हैं

पुंस्त्वे स्त्रीत्वे विशेषो वा जातिनामाश्रमादयः ।

न कारणं मद्धजने भक्तिरेव हि कारणम् ॥

यज्ञदानतपोभिर्वा वेदाध्ययनकर्मभिः ।

नैव द्रष्टुमहं शक्यो मद्भक्तिविमुखैः सदा ॥

‘पुरुष स्त्री या अन्यान्य जाति और आश्रम आदि मेरे भजनमें कारण नहीं हैं; केवल भक्ति ही एक कारण है।’
‘जो मेरी भक्तिसे विमुख हैं, यज्ञ, दान, तप और वेदाध्ययन करके भी वे मुझे नहीं देख सकते।’ यही घोषणा भगवान्ने गीता में की है।

इसके बाद भगवान्ने शबरीको नवधा भक्तिका स्वरूप बतलाया और कहा-

नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं।

सावधान सुनु धरु मन माहीं ॥

प्रथम भगति संतन्ह कर संगा

दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ॥

गुरु पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान ।

चौथ भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान ॥

मन्त्र जाप मम दृढ़ विस्वासा

पंचम भजन सो बेद प्रकासा ॥

छठ दम सील बिरति बहु करमा ।

निरत निरंतर सज्जन धरमा ।।

सातवें सम मोहिमय जग देखा।

मोतें संत अधिक करि लेखा ॥

आठव जथालाभ संतोषा।

सपनेहुँ नहिं देखड़ परदोषा ॥

नवम सरल सब सन छलहीना।

मम भरोस हिय हरष न दीना

नव महुँ एकड़ जिन्ह के होई।

नारि पुरुष सचराचर कोई ॥

सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें।

सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें ॥

जोगि वृंद दुरलभ गति जोई।

तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई ॥

उसी समय दण्डकारण्यवासी अनेक ऋषि-मुनि शबरीजीके आश्रम में आ गये। मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम और लक्ष्मणने खड़े होकर मुनियोंका स्वागत किया और उनसे कुशल प्रश्न किया। सबने उत्तरमें यही कहा ‘रघुश्रेष्ठ! आपके दर्शनसे हम सब निर्भय हो गये हैं।’

त्वद्दर्शनाद् रघुश्रेष्ठ जाताः स्मो निर्भया वयम् ॥ ” प्रभु ना ! हम बड़े अपराधी हैं। इस परम भक्तिमती | शबरीके कारण हमने मतंग-जैसे महानुभावका तिरस्कारकिया। योगिराजोंके लिये भी जो परम दुर्लभ हैं-ऐसे आप साक्षात् नारायण जिसके घरपर पधारे हैं, वह भक्तिमती शबरी सर्वथा धन्य है। हमने बड़ी भूल की।’ इस प्रकार सब ऋषि-मुनि पश्चात्ताप करते हुए भगवान से विनय करने लगे। आज दण्डकारण्यवासी ज्ञानाभिमानियोंकी आँखें खुलीं।

‘हमारे तीन जन्मोंको (एक गर्भसे, दूसरे उपनयनसे और तीसरे यज्ञ दीक्षासे), विद्याको, ब्रह्मचर्यव्रतको, बहुत जाननेको, उत्तम कुलको, यज्ञादि क्रियाओंमें चतुर होनेको बार-बार धिक्कार है; क्योंकि हम श्रीहरिके विमुख हैं। निःसन्देह भगवान्की माया बड़े-बड़े योगियोंको मोहित कर देती है। अहो ! हम लोगोंके गुरु ब्राह्मण कहलाते हैं, परंतु अपने ही सच्चे स्वार्थसे (हरिकी भक्तिमें) चूक ‘गये।’।

माता शबरी का भगवत धाम गमन

ऋषि-मुनियाँको पश्चात्ताप करते देखकर श्री लक्ष्मणजी ने उनके तपकी प्रशंसा करके उन्हें कुछ सान्त्वना दी। तदनन्तर एक ऋषिने कहा-‘शरणागतवत्सल! यहाँके सुन्दर सरोवरके जलमें कीड़े क्यों पड़ रहे हैं तथा वह रुधिर सा क्यों हो गया है?’ लक्ष्मणजीने हँसते हुए कहा-
‘मतंग मुनिके साथ द्वेष करने तथा शबरी जैसी रामभक्ता साध्वीका अपमान करनेके कारण आपकेअभिमानरूपी दुर्गुणसे ही यह सरोवर इस दशाको प्राप्त हो गया है।’

मतङ्गमुनिविद्वेषाद् रामभक्तावमानतः l

जलमेतादृशं जातं भवतामभिमानतः ॥

इसको फिर पहले जैसे करने का एक यही उपाय है कि शबरी एक बार फिर से उसका स्पर्श करे। भगवान्‌की आज्ञासे शबरीने जलाशयमें प्रवेश किया और तुरंत ही जल पहले जैसा निर्मल हो गया। यह है भक्तोंकी महिमा ! भगवान्ने प्रसन्न होकर फिर शबरीसे कहा कि ‘तू कुछ वर माँग।’ शबरीने कहा-
यत्त्वां साक्षात्प्रपश्यामि नीचवंशभवाप्यहम् l तथापि याचे भगवंस्त्वयि भक्तिर्दृढा मम ॥

‘मैं अत्यन्त नीच कुलमें जन्म लेनेपर भी आपका साक्षात् दर्शन कर रही हूँ, यह क्या साधारण अनुग्रहका फल है; मैं तो केवल यही चाहती हूँ कि आपमें मेरी दृढ़ भक्ति सदा बनी रहे।’ भगवान्ने हँसते हुए कहा- ‘यही होगा।’

शबरीने पार्थिव देह परित्याग करने के लिये भगवान्की आज्ञा चाही, भगवान्ने उसे आज्ञा दे दी। शबरी मुनिजनोंके सामने ही देह छोड़कर परम धामको प्रयाण कर गयी और सब ओर जय-जयकारकी ध्वनि होने लगी।

आशा करती हूँ आपको राम भक्त शबरी की ये कथा पढकर आनंद आया हो और आपको बहुत कुछ सीखने को मिला हो आगे किस भक्त के बारे में पढना चाहेंगे हमें कमेंट में बताएं धंन्यवाद।

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