कृष्ण भक्त सूरदास जी का जन्म वैशाख शुक्ल पंचमी के दिन विक्रम संवत 1535 में सर्वश्रेष्ठ विप्र कुल में महाकवि सूरदास जी का प्रादुर्भाव हुआ। पिता का नाम श्री रामदास और माता का नाम जमुना दास था महाकवि सूरदास जी के प्राकट्य की कथा गोलोक धाम निकुंज से आरंभ होती है।
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निकुंज लीला
क्या आप जानते हैं कि महाकवि सूरदास जी कौन हैं। एक समय गोलोक धाम के निवृत निकुंज में श्री प्रिया प्रीयतम किसी अंतरंग लीला में मग्न थे। द्वार पर श्री ललिता जी खड़ी थी ताकि श्री प्रिया प्रीतम के लीला में कोई बाधा ना हो तभी उधर से उद्धव जी श्री कृष्ण के दर्शन हेतु पधारे उन्होंने सोचा कि मुझे किसी की आज्ञा लेने की क्या आवश्यकता है मुझे तो ब्रज में सहज ही नित्य श्री कृष्ण से मिलन होता है। उद्धव जी ने जैसे ही भीतर जाना चाहा तो ललिता जी ने रोक दिया। निकुंज महल में बिना सहचरी सखियों की इच्छा के प्रवेश असंभव है इसलिए रसिको ने कहा है “की प्रथम वन्दी इनकेहु चरणन फिर सेवहु श्यामा श्याम”।

जब ललिता जी ने उद्धव को भीतर जाने से रोका तब उद्धव जी ने कहा जानती हैं आप प्रभु के दर्शन से रोकने वाला कौन होता है। म्लेक्ष कार्य करता है जीव और भगवान के मध्य आने का जाइये आप किसी म्लेक्ष के यहां जन्म लीजिए। तब ललिता जी ने कहां आपने बिना कुछ सोच-विचार विचार के ऐसा कठोर श्राप दे दिया। क्या आपके पास विवेक रूपी नेत्र नहीं थे मैंने आप जैसे भगवद-भक्त को रोका तो कोई कारण होगा आपने इतना भी विचार नही किया आपने एक नेत्रहीन जैसा कार्य किया है जाइये आप भी नेत्र हीन होकर भूमण्डल पर जन्म लीजिये।
उद्धव और ललिता जी की वार्ता सुनकर श्री राधा कृष्ण निकुंज के द्वार पर आ गएँ जब उन्होंने सारी चर्चा सुनी तो श्री प्रिया-प्रियतम ने कहां श्राप तो आप दोनों का सत्य सिद्ध होगा किंतु आप दोनों के भूमंडल पर जाने से असंख्य जीवों का कल्याण होगा और जिस दिन भूमंडल पर आप दोनों का मिलन होगा उसी क्षण आप दोनों श्राप से मुक्त होकर हमारी नित्य सेवा में आकर उपस्थित हो जाएंगे। वही उद्धव जी ने भूमंडल पर श्राप के अनुसार नेत्र हीन होकर सूरदास जी के रूप में जन्म लिया।
सूरदास जी का ग्रह त्याग
एक समय की बात है जब सूरदास के पिता को किसी यजमान ने दो स्वर्ण के मोहरे दी थी। वे बड़े प्रसन्न हुए की बहुत समय का कार्य इस धन से सिद्ध हो जाएगा। सूरदास जी के पिता ने उस मोहर को एक कपड़े में लपेटकर घर के किसी कोने में रख दिया अगले दिन जब उन्होने देखा तो मोहरे अपने स्थान पर नहीं थी तो वे शोक करने लगे। तभी सूरदास जी अपने पिता को उपदेश देते हुए कहा कि – पिताजी आप शोक क्यों करते हैं जिसने जीवन दिया है वह जीवन यापन का साधन भी अवश्य देगा। सूरदास की बात सुनकर रामदास ( पिता ) क्रोध से तिलमिला उठे ऐसा लगा मानो किसी ने जले पर नमक छिड़क दिया हो और कड़कती हुई आवाज में कहा सूरदास जी को तू जिस दिन से आया है उसी दिन से हमने दुख ही दुख सहा है।
पिता की बात सुनकर सूरदास जी ने कहा अगर आप मुझे एक वचन दें तो मैं आपको बता सकता हूं कि वह मोहरे कहां है पिता ने वचन दे दिया। सूरदास जी ने अंतर्दृष्टि से उस मोहर का स्थान बताया की अमुख स्थान पर है जाकर ले लीजिए। पिता ने जाकर देखा तो वह मोहरे वहीँ थी अब सूरदास जी ने कहा मैं घर त्याग कर भजन के लिए एकांत जाना चाहता हूं घर त्याग की बात सुनकर पिता ने सूरदास को रोकना चाहा किंतु सूरदास नहीं रुके वह निकल गए केवल अपनी प्रभु का आश्रय लेकर क्योंकि सूरदास को ना दिशा ज्ञात था और न रास्ता बस अपने प्रभु को स्मरण करते हुए बस इतना ही भाव उनके मन में था कि हरि के आश्रय में हूं जो देखना है हरि देखेंगे।
सूरदास और एक चरवाहे की कथा
सूरदास एक वृक्ष के नीचे बैठे मन ही मन सोच रहे थे ऐसा लग रहा था जैसे अपने प्रभु से बात कर रहें हों की – हे प्रभु मैं सर्वसाधन हीन हूँ आप तो सर्वसामर्थ्यवान हैं आपके अलावा त्रिकाल में मेरा कोई नहीं है। ऐसा सोच ही रहे थे की एक चरवाहा अपनी भैंस को ढूंढते – ढूंढते थक हार कर सूरदास जी के बगल में बैठकर रोने लगा। रोने की आवाज सुनकर सूरदास जी ने पूंछा क्यों रो रहे हो। उस चरवाहे ने अपनी सारी व्यथा बताई और कहां अगर मेरी भैंस नहीं मिली तो मेरे स्वामी न जाने मुझे क्या दंड देंगे तब सूरदास जी ने चिंता मत करो औरउन्होंने अपनी अंतर्दृष्टि से देखा और कहा अमुख स्थान पर जाओ वहां भैंस मिल जाएगी चरवाहे ने जाकर देखा तो भैंस वहीं पर थी।

उसे चरवाहे में जाकर अपने स्वामी से सारी बातें बताएं उसके स्वामी सूरदास की इस लीला से बड़ी प्रभावित हुए और जाकर सूरदास जी के चरणों में प्रणाम किया और और सूरदास के लिए यमुना के निकट ही उसे वृक्ष के नीचे ही एक कुटिया बनाया। सूरदास की प्रतिभा से सूरदास की बहुत प्रशंसा होने लगी दूर-दूर तक उनकी प्रसिद्धि होने लगी लोग उन्हें देखने आते सूरदास जी अब सूरस्वामी बन गए थे। एक बार ईश्वर की कृपा से सूरदास जी को स्मरण हुआ कि जिस लक्ष्य हेतु मैं संसार का घर का त्याग किया था आज फिर इतने सारे बंधन जोड़ लिए हैं मैंने सूरदास जी को बहुत ग्लानि हुई हृदय निर्मल हुआ और नेत्रों से अश्रु बहने लगे सूरदास जी उसी क्षण उस स्थान का परित्याग करके चल पड़े।
वृंदावन में सूरदास जी और वल्लभाचार्य जी का मिलन
जब सूरदास जी कुटिया का त्याग करके निकली थी तब चलते-चलते हुए ब्रजभूमि पहुंचे और मथुरा के निकट गांव घाट पर रहने लगी वहीं रहकर पद गाकर प्रभु से बातें करते थे “श्याम घन कब बरसोगे आप “।
एक बार उनकी भेंट वल्लभाचार्य जी से हुई श्री वल्लभाचार्य जी सूरदास के पदों के बारे में सुना था जब वल्लभाचार्य जी सूरदास जी के सम्मुख हुए तोह उन्होंने कहा सुना है आपके कंठ बहुत सुमधुर हैं । कछु गाकर सुनाइए। तब सूरदास जी ने विनयका पद सुनाया ( भक्त भगवान् के सामने अपने आपको पतितों का नायक घोषित कर उनका कृपा प्राप्त करना चाहता था। सूरदास जी ने दो तीन पद महाप्रभु के सामने गाया –सब पतितों का नायक हों तोह ,को कर सके बराबरी मेरी।

महाप्रभु ने कहा तुम सुर होकर इस तरह क्यों गीगियतें हो भगवान् का यश सुनाओ उनकी लीला का वर्णन करो तब सूरदास जी ने कहा मै भगवन की लीला का रहस्य नहीं जानता। तब वल्लभाचार्य जी सूरदास जी पर कृपा कर उन्हें उन्हें दीक्षा प्रदान की। तत्पश्चात वल्लभाचार्य जी के साथ में गोकुल गयें वहां जाकर सूरदास जी नित्य प्रतिदिन नवनीतप्रिया के दर्शन करते और अपने सुंदर पदों की रचना कर उन्हें सुनते।
सूरदास श्री वल्लभाचार्य जी के साथ गोकुल से गोवर्धन आए उन्होंने श्रीनाथजी का दर्शन किया और सदा के लिए श्रीनाथजी की चरण शरण में रहने का श्रेष्ठ संकल्प लिया श्रीनाथजी के प्रति उनकी अद्भुत भक्ति थी आचार्य की कृपा से वे प्रधान कीर्तनकार नियुक्त हुए।
सूरदास जी का निवास स्थान

गोवर्धन से आने के पश्चात सूरदास जी ने अपना स्थाई निवास चंद्रसरोवर के निकट परासौली में स्थिर किया सूरदास जी वहां से प्रतिदिन श्रीनाथजी का दर्शन करने जाते थे और नए-नए पद रचना करके बड़ी श्रद्धा भक्ति से श्रीनाथजी को सुनाते थे। धीरे-धीरे ब्रज के अन्य सिद्ध महानतम और पुष्टिमार्ग के भक्त कवि नंददास , कुम्भनदास , गोविंद दास आदि भक्तों से उनका संपर्क बढ़ने लगा। भगवत भक्ति की कल्पलता की छाया में बैठकर उन्होंने सूरसागर जैसे विशाल ग्रंथ रचना कर डाली। सूरदास अब महाकवि सूरदास जी बन गए थे एक बार संगीत सम्राट तानसेन अकबर सूरदास के पदों को सुनकर मोहित हो गए थे।
नाहिन रह्यो हिय मह ठौर
नंदनंदन अछत कैसे आनिये उर और
सूरदास जी की परीक्षा
एक बार सूरदास जी नवनीतप्रिया का दर्शन करने गोकुल के सूरदास जी उनके श्रृंगार का जो करते हुए वर्णन कर दिया करते थे एक दिन गोसाई विट्ठलनाथ जी के पुत्र गिरधर जी ने गोकुलनाथ के कहने पर उस दिन सूरदास जी की परीक्षा ली। उन्होंने भगवान का अद्भुत श्रंगार किया वस्त्रों के स्थान पर मोतियों की लडिंयां पहनाई तब सूरदास जी ने अपने दिव्य चक्षु से देखकर श्रृंगार का सुंदर वर्णन कर वे गाने लगें।
देखि री हरी नंगम नंगा
जलसुत भूषण अंग बिराजत ; बसन हीन छवि उठत तरंगा।
देखि री हरी नंगम नंगा
अंग अंग प्रति अमित माधुरी ; निरखि लजित रति कोटि अनंगा।
देखि री हरी नंगम नंगा
भक्ति की परीक्षा पूर्ण हुई भगवान ने सूर माहाकवि की प्रतिष्ठा अक्षुण रखी वे भक्त के हृदय कमल पर नाचने लगे महागायन की संगीत माधुरी से रासोन्मत्त नंदनंदन प्रमत्त हो उठे कितना मधुर वर्णन था उनके स्वरूप का।
सूरदास जी के जीवन का अंतिम क्षण
एक दिन सूरदास जी अपना अंतिम समय निकट जानकर केवल मंगला आरती का दर्शन किया सूरदास जी श्रीनाथ जी की प्रत्येक झांकी का दर्शन करते थे किंतु आज श्रीनाथजी के श्रृंगार झांकी में सूरदास जी को अनुपस्थित देखकर गोसाई विट्ठल नाथ जी बड़े आश्चर्यचकित हुऐं।
गोसाई विट्ठल नाथ जी ने श्याम सुंदर की ओर देखा तो प्रभु का मुख भी उदास था उन्होंने अपनी परम भक्त का पद नहीं सुना था सूरदास जी उन्हें नित्य प्रति दिन पद सुनाया करते थे। सभी भक्तगण चिंतित हो उठे गोसाई जी ने करुण स्वर से कहा आज पुष्टिमार्ग का जहाज जाने वाला है उन्होंने भक्त मंडली को परसौली भेज दिया और स्वयं भी भक्तों के साथ गयें।

इधर सूरदास जी की दशा विचित्र थी परसौली आकर उन्होंने श्रीनाथजी की ध्वजा को नमस्कार किया और उसी की ओर मुख करके चबूतरे पर लेट कर सोचने लगे कि यह काया (शरीर) पूर्ण रूप से हरि की सेवा में नहीं प्रयुक्त हो सकी। वे अपनी दैन्य और विवशताका स्मरण करने लगे फिर समस्त अलौकिक चिंताओं से मन हटाकर श्रीनाथ जी और गोसाई जी का ध्यान करने लगे।
तब तक गोसाई जी भी आप समझते हैं उन्होंने सूरदास जी का हाथ अपने हाथ में ले लिया महाकवि सूरदास जी ने उनके चरण वंदना की सूरदास जी ने कहा कि मैं तो आपकी ही प्रतीक्षा कर रहा था। वे पद गाने लगे –
खंजन नैन रूप रस माते ।
अतिसय चारु चपल अनियारे ; पल पिंजरा न समाते ।।
चली चली जात निकट स्त्रवननि के ; उलटी – पलटी तांटक फंदाते ।।
सूरदास अंजन गुन अटके ; नतरु अबहीं उड़ि जाते ।।
अंत समय में उनका ध्यान युगल स्वरूप श्री राधा मनमोहन ने लगा हुआ था श्री विट्ठल नाथ जी ने पूछा की चित कहां है तो उन्होंने कहा कि मैं राधा रानी की वंदना करता हूं जिसे नंदनंदन प्रेम करते हैं।
सूरदास जी का अंतिम पद
सूरदास जी से चतुर्भुज दास जी ने कहा कि आपने असंख्य पदों की रचना की पर श्री महाप्रभु वल्लभाचार्य जी का यश आपने कहीं वर्णन नहीं किया। तब सूरदास जी की गुरु निष्ठा बोल उठी उन्होंने कहा मैं तो उन्हें साक्षात भगवान का रूप समझता हूं गुरु और भगवान में तनिक भी अंतर नहीं है। मैंने तो आदि से अंत तक उन्ही यश गाया है सूरदास जी ने अपना अंतिम पद गाया-

भरोसो दृढ़ इन चरणन केरो ।
श्री बल्लभ नख चंद्र छटा बिनु ; सब जग मांझ अंधेरो ।।
साधन नाही और या जग में ; जासो होय निबेरो ।
सूर कहा कहें द्विबिध आँधरो ; बिना मोल को चेरो।।
भरोसो दृढ़ इन चरणन केरो ।
सूरदास जी ने श्री राधा कृष्ण की रासमई चरित्र का ध्यान करते हुए सदा के लिए ध्यानस्त हो गयें सूरदास जी त्यागी विरक्त और प्रेमी भक्त थे। श्री वल्लभाचार्य जी की सिद्धांतों के पूर्ण ज्ञाता थे उनकी मानसिक भगवत सेवा सिद्ध थी वह महा भागवत थे उन्होंने अपने उपासना श्री राधा रानी और श्री कृष्ण के यश वर्णन का ही श्रेया मार्ग समझा ऐसे महान भक्त महाकवि सूरदास जी ने अपनी श्रद्धा-भक्ति और पद गायन से प्रभु को रिझाया और गोलोक को प्राप्त किया।
आशा करती हूँ आपको ये कथा पढकर आनंद आया हो और आपको बहुत कुछ सीखने को मिला हो आगे किस भक्त के बारे में पढना चाहेंगे हमें कमेंट में बताएं धंन्यवाद।
अगर आपको भगवान श्री कृष्ण की लीलाओं के बारे में सुनना हो तो आप हमारे You tube channel पर जा सकते हैं link – Amrit-Gaatha