भक्त ध्रुव की कथा

भक्त ध्रुव की कथा बहुत ही प्रेरणादाई कथा है। स्वयंभू मनु और शतरूपा के दो पुत्र और तीन पुत्रियां थी उनके पुत्र के नाम प्रियव्रत और उत्तानपाद एवं पुत्रियों के नाम आकुति देवहुति और प्रस्तुति थी । महाराज उत्तानपाद की दो रानियां थी सुनीति एवं सुरुचि। सुनीति के पुत्र थे ध्रुव महाराज और सुरुचि के पुत्र उत्तम थे।

“मेरी आपसे विनम्र निवेदन है की आप इस कथा को पढते वक्त अपने नेत्रों के अंतर दृश्य में इस कहानी को देखते हुए पढ़े आपको आनंद आएगा”।

ध्रुव के प्रति रानी सुरुचि के व्यंग

महाराज उत्तानपाद को अपनी छोटी रानी सुरुचि अत्यंत प्रिय थी और रानी सुनीति से उदासीनप्राय रहते थे। एक दिन महाराज उत्तानपाद रानी सुरुचि के पुत्र उत्तम को गोद में लेकर उससे स्नेह कर रहे थे । तभी उसी समय वहां ध्रुव भी खेलते हुए पहुंचे और पिता की गोद में बैठने की उत्सुकता प्रकट करने लगे। वहां बैठी हुई रानी सुरुचि ने अपने सौत के पुत्र को मचलते देख ईर्ष्या और गर्व से बोली पुत्र तूने मेरे पेट से तो जन्म लिया नहीं है फिर महाराज की गोद में बैठने का प्रयत्न क्यों कर रहा है तेरी यह इच्छा दुर्लभ वस्तु के लिए है।

भक्त ध्रुव की कथा
भक्त ध्रुव उनकी विमाता सुरुचि और पुत्र एवं उनके पिता उत्तानपाद

यदि मेरे पुत्र उत्तम की भांति तुझे भी राज्यआसन पर या पिता की गोद में बैठना है तो पहले तपस्या करके भगवान को प्रसन्न कर और उनकी कृपा से मेरे पेट से जन्म ले। ध्रुव को अपनी विमाता के यह वचन बाण से लग गए। उनके मुख् क्रोध से लाल हो गए श्वास जोर-जोर से चलने लगी ध्रुव रोते हुए वहां से अपनी माता के पास गए इधर महाराज उत्तानपाद को अपनी छोटी रानी की बात सुनकर प्रसन्नता नहीं हुई किंतु वे कुछ बोल ना सके।

बालक ध्रुव जब रोते हुए अपनी माता के पास गए तो उनकी माता सुनीति ने अपने रोते हुए पुत्र को गोद में उठा लिया और बड़े दुलारसे पुचकारकर रोने का कारण पूछा ध्रुव की सभी बातें सुनकर सुनीति को बड़ी व्यथा हुई वे भी रोती हुई बोली -‘पुत्र सभी लोग अपने ही भाग्य से सुख या दुख पाते हैं ‘।

अतः दूसरों को अपनी अमंगल का कारण नहीं मानना चाहिए। तुम्हारी विमाता ठीक ही कहती हैं कि तुमने दुर्भाग्य के कारण ही मुझ अभागिन के गर्भ से जन्म लिया। मेरा इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है कि मेरे पति मेरे महाराज मुझे अपनी भार्या ( पत्नी ) की भांति राजसदन में रखने में लज्जित होते हैं। परंतु पुत्र तुम्हारी भी विमाताने जो शिक्षा दी है वह निर्देश है तुम उसका आचरण करो।

माता सुनिति के उपदेश

माता सुनीति ध्रुव को भगवान श्री हरि की अपार महिमा को बताती हैं और कहती हैं —पुत्र यदि तुम्हें अपने भाई उत्तम की भांति राज्यासन चाहिए तो कमल नयन अधोक्क्ष भगवान के चरण कमलोंकी आराधना करो। जिनकी चरणों की सेवा करके योगियो के भी वंदनीय परमेष्ठी पद को ब्रह्मा जी ने प्राप्त किया तथा तुम्हारे पितामह भगवान मनु ने यज्ञों के द्वारा जिनका यजन करके दूसरों के लिए जो दुष्प्रय भूलोक तथा स्वर्गलोक के भोग एवं मोक्ष को प्राप्त किया। उन्ही भक्तवत्सल भगवान का आश्रय लो। अनन्य भाव से अपने मन को उनमें ही लगाकर उनका भजन करो उन कमल लोचन भगवान के अतिरिक्त तुम्हारा दुख दूर करने वाला और कोई नहीं है। भगवान तो समस्त ऐश्वर्योंके के स्वामी है जिन लक्ष्मी जी का दूसरे सब अन्वेषण करते हैं वह भी हाथ में कमल लिए उन परम पुरुष के पीछे उनको ही ढूंढती चलती हैं अतः तुम उन दयामय भगवान नारायण की ही शरण लो।

भक्त ध्रुव को गुरु की प्राप्ति

माता के वचन सुनने के पश्चात ध्रुव ने अपने चित को स्थिर किया और अपने नगर को छोड़कर वन की ओर जाने लगे।(“क्या आप अनुभव कर सकते हैं कि वह माता कितनी महान कि होंगी अपने नन्हे से 5 वर्ष के बालक को वन कैसे जाने दिया होगा अद्भुत है ऐसी माता हमारी प्राचीन धर्म ग्रंथो एवं शास्त्रों में ऐसे अनेक माताएं हैं जैसे माता यशोदा ,माता देवीकी, माता कौशल्या, माता सुमित्रा, माता कैकई, माता कुंती और ऐसी कई अन्य माताएं हैं जिन्होंने कितने परित्याग किए हैं ऐसी माताओंको शत-शत प्रणाम है मित्रों भक्त ध्रुव की कथा में हमें जीवन के बहुत से गुण और विचा जानने को मिलेंगे जो इस कथा में छिपी हुई है’)

ध्रुव जब सब कुछ छोड़कर वन की ओर चल पड़ें तभी उन्हें मार्ग में नारद जी मिलें देवऋषि नारद जी ने ध्रुव को समझाकर उन्हें लोभ और भय दिखलाकर घर की ओर लौटाना चाहा किंतु ध्रुव की दृढ़ निष्ठा और निश्चय देखकर उन्हें द्वादाक्षर मंत्र “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” की दीक्षा दी और भगवान की पूजा तथा ध्यान विधि बताकर यमुना तट पर मधुवन में जाने का आदेश दिया।

ध्रुव की तपस्या

भक्त ध्रुव जी नारद जी के आदेश अनुसार मधुवनमें यमुना तट पर पहुंचे ध्रुव के हृदय में तनिक भी संदेह नहीं था भगवत प्राप्ति में श्री कालिंदी के पापहारी प्रवाह में स्नान करके जो कुछ फल पुष्प मिल जाता उससे भगवान की पूजा करते हुए वह नारद जी से प्राप्त द्वादाक्षर मंत्र का अखंड जाप करने लगे। पहले महीने तीन दिन उपवास करके चौथे दिन कैथ और बेर खा लिया करते थे। दूसरे महीने में सप्ताहमें एक बार वृक्ष से स्वयं टूट कर गिरे पत्ते या सूखे तृण के भोजन करके ध्रुव भगवान के ध्यान में तन्मय रहने लगे।

तीसरे महीने में 9 दिन बीत जाने पर केवल एक बार वे जल पीते थे। चौथे महीने में तो 12 दिन पर एक बार वायु भोजन करना प्रारंभ कर दिया और पांचवे महीने में श्वास लेना भी छोड़ दिया प्राण को वश में करके भगवान का ध्यान करते भक्त ध्रुव एक पैर से निश्चल खड़े रहने लगे। 5 वर्ष के बालक ध्रुव ने समस्त के लोकों के आधार समस्त तत्वों के अधिष्ठाता भगवान को हृदय में स्थिर रूप से धारण कर लिया था। वे भगवन्नमय में हो गए जब वे एक पैर बदलकर दूसरे पैर रखते तब उनके भार से पृथ्वी जल में नौका की भांति डगमगाने लगती थी। उनके श्वास न लेने से तीनों लोकों के प्राणियों का श्वास बंद होने लगा।

भक्त ध्रुव को नारायण के दर्शन

भक्त ध्रुव और नारायण
ध्रुव को नारायण के दर्शन

जब श्वास अवरोध से पीड़ित होने लगे तब सभी देवता भगवान के शरण में गए श्री हरि ने देवताओं को आश्वासन दिया – ‘बालक ध्रुव संपूर्ण रूप से मुझमें चित्त लगाकर प्राण रोके हुए हैं अतः उनके प्राणायाम से ही आप सबका श्वास रुका है अब मैं जाकर उन्हें इस तपसे निवृत करूंगा। यूं कहकर भगवान गरुड़ पर बैठकर ध्रुव के पास गए किंतु ध्रुव इतने तन्मयता तन्मय ध्यान कर रहे थे की उन्हें कुछ भी पता नहीं लगा कि उनके सामने साक्षात श्री हरि हैं। श्री हरि ने अपने स्वरुप ध्रुव के हृदय से अंतरनिहित कर दिया। हृदय में भगवान का दर्शन न पाकर व्याकुल होकर जब ध्रुव में अपने नेत्र खोले तो देखा की अनंत-सौंदर्य, माधुर्यधाम भगवान को सामने देखकर उनके आनंद की सीमा नहीं रही।

जब वे हाथ जोड़कर भगवान की स्तुति करने के लिए उत्सुक हुए किन्तु क्या स्तुति करें वे समझ ही ना सके। दयामय में प्रभु ने ध्रुव उत्कंठा देखि और अपनी श्रुतिरूप शंख से बालक के कपोलको को स्पर्श करा दिया बस उसी क्षण ध्रुव के हृदय में तत्वज्ञान का प्रकाश हो गया। वे संपूर्ण विद्याओ से संपूर्ण हो गए और बड़े प्रेमसे भावपूर्ण श्री हरि की स्तुति की उन्होंने।

भगवान ध्रुव को वरदान देते हुए कहा – ‘पुत्र ध्रुव तुमने कुछ मांगा नहीं किंतु मैं तुम्हारी हार्दिक इच्छा को जानता हूं मैं तुम्हें वह पद देता हूं जो दूसरों के लिए दुष्प्राय है’। उस पद पर अब तक दूसरा कोई भी पहुंचा नहीं है सभी ग्रह ,नक्षत्र, तारामंडल उसकी प्रदक्षिणा करते हैं। अपने पिता के वानप्रस्थ लेने पर तुम पृथ्वी का दीर्घकाल तक शासन करोगे और फिर अंत में मेरा स्मरण करते हुए उस सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मांड के केंद्रभूत धाम में पहुंचोगे, जहां जाकर फिर संसार में लौटना नहीं पड़ता इस प्रकार वरदान देकर भगवान अंतर्ध्यान हो गए।

भक्त ध्रुव और नारायण
ध्रुव को दिव्य ज्ञान की प्राप्ति

तत्पश्चात ध्रुव को भगवान के अंतर्ध्यान होने पर बड़ा खेद हुआ। वे मन ही मन कहने लगे मेरी बहिर्मुखता कितनी बड़ी है मैं कितना मंदभाग्य हूं कि — संसार चक्र को सर्वथा समाप्त कर देने वाले श्री नारायण के चरणों को प्राप्त करके भी मैंने उनसे केवल नश्वर भोग मांगा अवश्य ही और सहिष्णुता देवताओं ने मेरी बुद्धि में भ्रम उत्पन्न कर दिया था।

देवर्षि ने तो मुझे ठीक ही कहा था उन्होंने तो मुझे मोक्ष के लिए ही भगवान को प्राप्त करने का आदेश दिया था और ईर्ष्या – द्वेष को तुच्छ मानकर छोड़ देने को कहा पर मैंने उनकी तथ्यपूर्ण वाणी को ग्रहण नहीं किया। मैंने जो श्रेष्ठ पद मांगा वह तो नश्वर है व्यर्थ थी मैंने उसकी याचना की जागतात्मा, परम दुर्लभ, भवभयहारी भगवान को तप से प्रसन्न करके भी मैं संसार का भोग ही मांगा मैं कितना बड़ा अभागा हूं इस प्रकार अपने आप को धिक्कारते हुए वह नगर की ओर लौटने लगे।

भक्त ध्रुव का घर आगमन

नगर से बाहर जैसे ही बालक ध्रुव आते दिख पड़े तो राजा हाथी से भूमिपर उतर गए उन्होंने भूमि पर लेटकर प्रणाम करते हुए पुत्र को गोदमें उठाकर हृदय से लगा लिया। उनके नेत्रों से आंसुओकी धारा बहने लगी। ध्रुव ने पिता के बाद अपनी विमाता सुरुचिको प्रणाम किया सुरुचि ने कि उन्हें गोद में ले लिया और कंठ रुक जाने से केवल इतना बोल सकी- पुत्र जीते रहो। माता सुनीति को तो अपने प्राणों के समान प्रिय पुत्र मिला था। सब लोग माता सुनीति के पुण्यप्रभाव की प्रशंसा कर रहे थे नगर भलीभांति सजाया गया था बड़े सत्कार से भक्त ध्रुव महाराज को राजभवन में ले गए।

यक्षपुरी पर ध्रुव का आक्रमण

जब महाराज उत्तानपाद को वैराग्य हो गया तब उन्होंने ध्रुव का राज्याभिषेक कर दिया और स्वयं भगवान का भजन करने तपोवन चले गए। ध्रुव की विमाता सुरुचि के पुत्र उत्तम का विवाह नहीं हुआ था एक दिन वन में आखेट करते समय वे कुबेर की अलकापुरी के पास हिमालय पर पहुंच गए वहां यक्षोंसे से विवाद हो गया और यक्षोंने उन्हें मार डाला। भाई की मृत्यु सुनकर ध्रुव को बड़ा क्षोभ हुआ।

तत्पश्चात ध्रुव ने यक्षपुरी पर आक्रमण कर दिया बड़ा ही प्रचंड संग्राम हुआ। बहुत से यक्ष मारे गए अंत में ब्रह्मलोक से आकर भगवान मनु ने ध्रुव को समझाया भगवान मनु ने कहा– ‘पुत्र ध्रुव यह यक्ष उपदेव हैं। उनके स्वामी कुबेर जी भगवान शिव के सखा हैं तुम्हें उनका सम्मान करना चाहिए। प्राणी अपने कर्म से ही जीवन या मृत्यु पाता है यक्ष तो निरपराध हैं।

यदि किसी ने अपराध किया भी हो तो एक के अपराध के लिए अन्य सभी को दंड देना उचित नहीं है क्रोध छोड़कर तुम कुबेर जी से क्षमा मांग लो। ध्रुव ने अपने पितामह मनु की आज्ञा स्वीकार कर ली और उनके युद्ध से अलग हो जाने पर कुबेर जी ने उन्हें दर्शन दिया। कुबेर जी ने वरदान मांगने को कहा तब भक्त ध्रुव ने वरदान में यह मांगा किभगवान के चरणों में मेरा अविचल अनुराग हो वरदान देकर कुबेर जी अदृश्य हो गए तत्पश्चात भक्त ध्रुव अपनी राजधानी को लौट गायें

भक्त ध्रुव महाराज अपने दिव्य धाम की ओर चलें

महाराज ध्रुव ने दीर्घकाल तक राज्य किया तत्पश्चात सभी भोगों से विरक्त होकर बद्रिकाश्रम पहुंचे वहां मंदाकिनी में स्नान करके वे भगवान का एकांत चित से ध्यान करने लगें। उसी समय आकाश से एक दिव्य विमान आया विमान के साथ भगवान के पार्षद भी आएं भगवान की पार्षदों को देखकर ध्रुव महाराज ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। पार्षदों ने कहा – ‘राजन हम भगवान नारायण के पार्षद हैं आपने भगवान को अपनी भक्ति से प्रसन्न किया है। अब आप इस विमान पर बैठकर उस दिव्य लोक को चलें जिसे सभी ग्रह नक्षत्रादि प्रदक्षिणा करते हैं’।

भक्त ध्रुव महाराज

भक्त राज ध्रुव ने वहां स्नान कर वहां के ऋषि मुनियों को प्रणाम किया और उनका आशीर्वाद लेकर जब वे विमान पर बैठने लगे तब उनका शरीर दिव्य हो गया। उसी समय वहां मृत्यु देवता आएं उन्होंने कहा मेरा स्पर्श किए बिना कोई इस लोक से नहीं जा सकता ऐसी मर्यादा है। तब महाराज ध्रुव ने मृत्युदेव के मस्तक पर अपना पैर रखा और विमान पर चढ़ गायें।

भगवान के भक्तों का चरण स्पर्श पाकर मृत्यु देव भी धन्य हो जाते हैं। विमान में जाते हुए भक्त ध्रुव ने अपनी माता का स्मरण किया भगवान के पार्षदों ने आगे विमान से जाती हुईं सुनीति देवी को दिखाया। ऐसे पुत्र की जननी धन्य है भगवत भक्त अपने पूरे कुल को तार देता है। ध्रुव आज भी अपने अविचल धाम में भगवान का भजन करते निवास करते हैं ध्रुव तारा उनका वही ज्योतिर्मय धाम है।

महत्वपूर्ण बातें

जैसी श्रद्धा और विश्वास भक्त ध्रुव की थी वैसी श्रद्धा अगर पक्की ना हो तब तक भजन में दृढ़ता तथा प्रेम नहीं आता जो वस्तु मिलनी संभव न जान पड़ती हो उसे पाने के लिए ना तो इच्छा होती है और ना प्रेम। जब तक मन में यह बैठा है कि हमें भगवत प्राप्ति भला कैसे होगी तब तक भजन में मन नहीं लगता। हम चाहे जैसे हो चाहे जितने अधम हो पर भगवान की कृपा हमारे पाप एवं अपराधों से अनंत महान है। उदारचक्र चूड़ामणि अवश्य हमें अपनाएंगे क्योंकि वे करुणा सागर हैं हमें अपनाएं बिना नहीं रह सकते। ऐसा दृढ़ विश्वास हो जाने पर ही भजन होता है जैसे कि भक्तराज ध्रुव को तनिक भी संदेह नहीं था भगवत प्राप्ति में। मित्रों आपको भक्त ध्रुव की कथा कैसी लगी आप हमें कमेंट में बता सकते हैं।

आशा करती हूँ आपको ये कथा पढकर आनंद आया हो और आपको भक्ति के कुछ गुण सीखने को मिला हो आगे किस भक्त के बारे में पढना चाहेंगे हमें कमेंट में बताएं धंन्यवाद।

अगर आपको भगवान श्री कृष्ण की लीलाओं के बारे में सुनना हो तो आप हमारे You tube channel पर जा सकते हैं link – Amrit-Gaatha

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