कृष्ण भक्त मीराबाई का जन्म 1498 में शरद पूर्णिमा के दिन मध्यान के समय उनका जन्म हुआ। मीराबाई के पिता का नाम राठौर रतनसिंह और माता का नाम वीर कुमारी था। मीराबाई का जन्म इस संसार को प्रेम का प्रकाश देने के लिए मीरा के रूप में कृष्ण प्रेम प्रकट हुआ है। भगवान गीता में कहतें हैं ”तदात्मानम सृजाम्यहम ” कि मैं अपने आत्म स्वरूप का सृजन करता हूं फिर उसे संसार में भेजता हूं इसलिए यह भक्त भगवान के आत्म स्वरूप है। यह इस धरा धाम पर पुनः – पुनः आते हैं और इस संसार की गिरती हुई चेतना को भक्ति से ऊर्जान्वित और गौरवान्वित करके चले जाते हैं। उन्ही भक्तों में से एक है हमारी कृष्ण भक्ति मीराबाई हैं जो संपूर्ण नारी जाति को उन्होंने गौरवान्वित किया और भक्ति और प्रेम का अद्भुत उदाहरण दिया।
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मीराबाई का बाल स्वरूप
मीराबाई का बाल स्वरूप ऐसा था जैसे उनका कुछ खो गया हो उनकी चेष्टा ऐसी थी कभी भी उनको संसार के खेल और खिलौने में मन नहीं लगता था। मीरा सदैव गुमसुम खोयीं-खोयीं सी रहती किंतु उनकी उदासी में भी विचित्र सा सुख और शांति रहता था। मीरा की माता मीरा को लेकर अत्यंत चिंतित रहतीं क्योंकि मीरा उनकी इकलौती संतान थी। मीरा की माता का प्रयास रहता कि मीरा को खेल खिलौने और सखियों के संग में लगाएं। किंतु जब भी वह मीरा के निकट जाती तो मीरा की उस उदासी और उनकी गहन शांति को देखकर वे स्वयं ही उसी में डूब जातीं।
वर्णन आता है की मीरा के रावदूदा जी भगवत भक्त एवं संतसेवी पुरुष थे। इसलिए मीरा के महल में संतों का आना-जाना नित्य लगा रहता था। मीरा का प्रतिदिन प्रयास रहता कि वे रात्रि अपने दादा रावदूदा जी के पास बैठकर मैं कुछ भगवत चर्चा सुनूं , संतो के बारे में सुनूं, महान ऋषि मुनियों की और देवी देवताओं की गाथा सुनूं। मीरा के चित में भक्ति का बीज यही से अंकुरित हो रहा था और अपने दादा राव दूध जी का सत्संग भी प्राप्त हो रहा था।
मीरा का तीर्थ यात्रा पर जाने का ज़िद
हमारी कृष्ण भक्त मीराबाई की अद्भुत कहानी हैं। एक बार मीरा के दादा रावदूदा जी को तीर्थ पर जाने की इच्छा हुई मीरा भी जाने के लिए जिद करने लगी वे डाकोर रणछोड़राई के दर्शन के लिए जा रहे थे। मीरा अपने दादा के साथ गई मार्ग में मीरा ने अपने दादा रावदूदा से प्रश्न किया दाता हुकुम ! कुछ समय पहले हमारे महल में एक संत पधारे थे और रामायण की चौपाई कही थी उन्होंने— रावदूदा बोले अच्छा तो तुम्हें याद है। मीरा ने कहा मुझे ठीक-ठाक स्मरण है उन्होंने कहा कि” हरि व्यापक सर्वत्र समाना प्रेम ते प्रकट होही मैं जाना “ कि भगवान सर्वत्र समान रूप से व्याप्त है अगर भगवान सर्वत्र समान रूप से व्याप्त है तो आप और हम किसी तीर्थ स्थान पर क्यों जा रहे हैं। 4 वर्ष की नन्ही सी बालिका की बात सुनकर रावदूदा आश्चर्य चकित रह गए। उन्होंने सोचा छोटी सी बालिका के मन में ऐसा विचित्र प्रश्न उन्होंने प्रश्न को टालते हुए कहा बेटी तुम संध्या वंदन के लिए तैयार हो जाओ मैं संध्या आरती करने के पश्चात इसका उत्तर दूंगा।

मीरा जब संध्या वंदन कर रही थीं तो उनकी दृष्टि एक संत पर पड़ी जो ध्यान में मग्न थे। मीरा के मन को आकृष्ट किया योगी की उस ध्यान मुद्रा ने मीरा योगी के पास जाकर बैठ गई और प्रतीक्षा करने लगी कि जब वह नेत्र खोले तो मैं इनको प्रणाम करूं बहुत प्रतीक्षा के बाद योगी की आधी आंखें खुली तो देखा कि एक नन्ही सी बालिका लेकिन बड़ी तेजस्विनी है और बड़ी ही दिव्यता है। इसमें योगी ने मीरा से कहा अपना परिचय दो पुत्री ! तो मीरा ने कहा मेड़ता के परम संतसेवी रावदूदा के मझलें पुत्र की कन्या होने का गौरव मुझे मिला है।
ऐसा सुंदर परिचय सुनकर योगी आश्चर्यचकित रह गए तभी मीरा के दादा मीरा को ढूंढते हुए उन संत के पास आए और उनको प्रणाम किया योगी ने कहा अगर आपकी आज्ञा हो तो मैं इस कन्या को योग की शिक्षा देना चाहता हूं। रावदूदा बड़े प्रसन्न हुए कि बिना प्रयास के ही हमारे घर गंगा आई है। तत्पश्चात मीरा और उनके दादा जब घर लौटने लगे तो आते-आते मीरा ने जो प्रश्न किया था उसका उत्तर भी दे दिया कि” भगवान जब सर्वत्र समान रूप से व्याप्त है तो तीर्थ जाने की क्या आवश्यकता” रावदूदा जी ने बड़ा ही सुंदर सा उत्तर दिया की बेटी तीर्थ पर भगवान के दर्शन करने नहीं जाया जाता तीर्थ वह स्थान है जहां पर “प्रेम से प्रकट होही मैं जाना” – अर्थात जहां किसी भक्त की भक्ति से आकृष्ट होकर वह निराकार साकार हो जाता है । रावदूदा ने मीरा के प्रश्नों का उत्तर दे दिया वे चर्चा करते-करते घर लौट आएं।
मीरा का योग शिक्षा आरंभ
मीरा का योग शिक्षा आरंभ हो गया मीरा के गुरु बड़े ही आश्चर्य चकित थे की प्रथम दिन जब मीरा के गुरु ने कहा की बेटी एक बार आंख बंद करके बताओ क्या दिख रहा है तो मीरा ने कहा कोटि-कोटि सूर्यों का प्रकाश है आंख बंद नहीं किया जाता आप आज्ञा करें तो मैं अपनी आंखें खोल लूं। चौथे दिन योगीराज ने बुलाया रावदूदा को की इसकी शिक्षा पूर्ण हुई वह बड़े ही आश्चर्यचकित हुए की चार दिन पहले तो शिक्षा आरंभ हुई और चौथे दिन पूर्ण भी हो गई। योगी ने कहा इसका उत्तर तो मेरे पास भी नहीं है। जो विद्या सीखने के लिए मैं जन्मो प्रयास किया वो इसने चार दिन में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, और समाधि यह सब कुछ इसने चार दिन में पूर्ण कर लिया।
योगी ने कहा लगता है ईश्वर ने मुझे माध्यम बनाया है इस कन्या के लिए ताकि मैं इसे योग का ज्ञान दे सकूं किंतु ऐसा शिष्य पाकर मैं स्वयं धन्य हो गया। भगवान ने मुझे इस कन्या का दर्शन कराकर मुझे यह शिक्षा दी है कि किस प्रकार भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ है।
मीरा का संगीत शिक्षा का आरंभ
कुछ काल बीतने के बाद महल के द्वार पर एक संत पधारे कीर्तन करते हुए रावदूदाजी ने देखा तो उन्होंने संत को अंदर बुलाया और बैठकर उनका खूब सम्मान किया। मीरा को जब ज्ञात हुआ कि कोई संत पधारे हैं और गोविंद राधे माधव गोपाल राधे माधव का सुंदर कीर्तन कर रहे हैं मीरा के कानों में जैसे ही यह मधुर कीर्तन सुनाई दिए वे दौड़ी चली आई। मीरा ने देखा की कैसे अद्भुत संत है जो हाथ में तम्बूरा लिए हैं उनके अंग – प्रत्यंग से अद्भुत छटा- छिटक रही थी। मीरा से रहा नहीं गया और उसने संत से पूछा कि क्या आप मुझे भी संगीत सिखाएंगे।

मीरा के प्रश्न सुनकर वे संत मीरा के नेत्रों की तृष्णा देखकर समझ गयें यह कोई साधारण नहीं बल्कि कोई भगवत रसिक है। संत ने कहा अवश्य सिखाऊंगा पुत्री ! मीरा के संगीत शिक्षा आरंभ हो गई संत मीरा को जो-जो सिखाते मीरा उससे कहीं अधिक ग्रहण करती। संत बहुत चकित थें कि मैं एक सिखाता हूं मीरा दो बात सिखती है देखते ही देखते मीरा संगीत में पारंगत हो गयीं।
एक बार कोई शुभ अवसर आया सभी अतिथिगण भी आए थे उन संत ने कहा पुत्री आज बहुत शुभ दिन है तुमने जो कुछ सीखा है आज अपने प्रभु को समर्पित कर दो। (भक्त का लक्षण होता है कि वह अपने गुणों को संसार से छुपाता है और दूसरा जो संसारी व्यक्ति है अपने गुणों को किसी न किसी प्रकार उजागर करने का प्रयास करता है। ) मीरा संकोच कर रही थी कि किस प्रकार मैं प्रभु का गुणगान करूँ मैं तो किसी योग्य नहीं हूं परंतु गुरु की आज्ञा है जिससे सीखा है उसी की आज्ञा है संत ने अपना तामपुरा दिया और कहा पुत्री अब गाओ।
बसो मोरे नैनन में नंदलाल
मोहनी मूरत सांवरी सूरत चंचल नैन विशाल
बसो मोरे नैनन में नंदलाल….
संत जाते-जाते मीरा से कह गयें बेटी तू इस दिशा में पुकारा कर अपने प्रभु को। संत ने मीरा को वृंदावन की दिशा दे दी। मीरा का भाव उन्माद दिन प्रतिदिन बढ़ने लगा इधर मीरा की माता चिंतित हो रही थी कि क्या आवश्यकता थी मेरी फूल से नन्ही सी पुत्री को योगियों और संतों को सौपने की- ये दाता हुकुम! को क्या सूझी जो मेरी नन्ही सी पुत्री को क्या से क्या कर दिया।
संत के द्वारा मीरा को गिरधर गोपाल का विग्रह मिलना
कुछ समय पश्चात फिर एक संत पधारे उनके पास एक सुंदर गिरधर गोपाल का विग्रह था। बड़े ही शांत स्वभाव के वे संत थे उनके मुख पर एक अद्भुत शांति थी और वे राधे गोविंद का कीर्तन कर रहे थे। वहीँ एक कक्ष में रुके थे भोर से सांझ तक अपने प्रियतम की सेवा में लगे रहते थे वह एकांत प्रिय थे। किसी से बातचीत नहीं करते थे “कहा भी जाता है भगवत प्रेमी एकांत प्रिय होते हैं ” मीरा को पता चला तोह वह छुपकर उन संत को बड़ी गंभीरता से देखते देखती थी।
एक दिन ऐसा आया जब मीरा को उन संत के प्राण प्रिय गिरधर गोपाल का प्रथम दर्शन हुआ दर्शन होते ही मीरा स्तब्ध रह गई ऐसा लगा मानो कोई अपना मिल गया हो जिसकी मुझे जन्मों से प्रतीक्षा थी। मीरा के कंठ अवरुद्ध हो गए नेत्र अश्रुओं से छल्ल-छला गयें। मीरा अब प्रतिदिन प्रतीक्षा करती कि संत किसी प्रकार यत्र -तत्र हों और मुझे उन आराध्य स्वरूप का दर्शन हो जाए।
एक दिन संत को लगा कि द्वार पर कोई है उन्होंने पुकारा कौन मीरा सकुचाती हुई सामने आई और संत को प्रणाम किया। संत मीरा के हाव-भाव देखकर समझ गायें यह तो भगवत प्रेमी है “जौहरी की गति जौहरी ही जाने” संत ने मीरा के अंतर मन को टटोला संत ने प्रसाद दिया और पूछा बेटी आरती का दर्शन करोगी संत ने आरती का थाल उठाया और उन्होंने कहा बेटी सुना है तुम बहुत अच्छा गाती हो मीरा सकुचा गई। संत ने कहा बेटी सकुचाओ मत गुण यदि प्रभु के चरणों में निवेदित कर दिया जाए तोह वह सद्गुण बन जाता है मेरे कहने पर मेरे प्रभु के लिए गाओगी।
मीरा ने गाना आरंभ किया–
बसों मोरे नैनन में नंदलाल,
मोहनी मूरति सांवरी सूरति चंचल नैनन बिशाल
बसों मोरे नैनन में नंदलाल
आज मीरा रात्रि भर यही सोचती रही कि मैं उन संत से प्रसाद रूप में गिरधर गोपाल को मांग लूं क्या फिर अपने आप को समझाती कि ऐसा सोचना भी पाप है मीरा किसी का जीवन-धन प्राण-धन कोई मांगता है क्या। किंतु अब मैं उनके बिना कैसे रहूंगी उनकी मोहनी मूरत मेरे रोम रोम में बस गई है मीरा यही विचार करती-करती रात्रि बीत गई पता भी नहीं चला की कब भोर हो गयी। तभी मीरा को संत के मंगल गान का स्वर सुनाई दिया आज मीरा ना स्नान किया ना ध्यान किया प्रतिदिन तो स्नान ध्यान करके जाती किंतु आज उन्हें लगा कि कहीं मैं आज दर्शन रूपी प्रसाद से वंचित न रह जाऊं और मीरा दौड़ी संत के पास।
मीरा सकुचाती हुई अपने नेत्र नीचे किये हुई थी संत ने कहा बेटी आज प्रसाद नहीं लोगी मीरा सकुचाते हुए अपनी अंजुली संत के सम्मुख कर दी। प्रसाद के रूप में आज नैवेद्य नहीं बल्कि गिरधर गोपाल जी थे मीरा के आनंद का तो वर्णन ही क्या करें उसकी प्रसन्नता तो चरम सीमा पर थी। मीरा अपने गिरधर गोपाल से कहती हैं – हे प्रभु ! कभी मेरे अवगुणों को मत देखना मैं बिना मोल की दासी हूं बस अपने श्री चरणों में रखे रहना मैं आपकी दासी हूं।
मीरा के गुरु रैदास जी
मीरा दिन रात अपने गिरधर गोपाल की सेवा में लगी रहती साथ ही उन संत की बातों को स्मरण करती हैं। संत ने कहा था बेटी एक दिन तुम्हारे सद्गुरु तुम्हें अवश्य मिलेंगे मीरा के नैन प्रतिदिन अपने गुरु के आने का बाँट जोहती की मेरे सद्गुरु मुझे कम मिलेंगे और आज वो दिन आ ही गया। मीरा की वह मंगल घड़ी आ गई की काशी के महान संत रैदास जी अपने शिष्यों के साथ पधारे हैं बाईसा ! आप चलकर दर्शन कर लीजिए रावदुदा जी का ऐसा मंगल हुक्म है।

मीरा दौड़ी और संत के चरणों में जाकर प्रणाम किया सद्गुरु की दृष्टि मीरा पर पड़ी और उन्होंने मन ही मन भगवान को धन्यवाद किया कि हे – प्रभु ! इसका गुरु बनना आप मुझे उत्तरदायित्व नहीं दे रहे बल्कि गौरव प्रदान कर रहे हैं। मीरा का गुरु बनना मेरे लिए गौरव की बात है संत रैदास मन ही मन भगवान क धन्यवाद कर रहे थे।
मीरा ने संत को प्रणाम करके प्रसाद लेने की मुद्रा में जब अपनी अंजुली बढ़ायी तो संत रैदास जी ने अपनी कंठ की तुलसी माला और अपने हाथ में पड़ा एकतारा मीरा के हाथ में रख दिया। संत रैदास जी ने कृष्णार्पण कर दिया। मीरा का जीवन – सतगुरु ने मीरा को कंठ की तुलसी माला देकर दिशा दे दी – की अब उद्देश्य और गंतव्य और सर्वस्व श्री कृष्णा हैं और एकतारा दिया की हरि गुण गाना यही सारों का सार है उनका गुण-गान और हरी को भजना यही शिक्षा है। हाथ में एकतारा आते हैं मीरा ने उस सभा में गया–
माइ री माइ साँवरे रंग रांची
श्याम बिना जग खारो लागत
जगरी बातां कांची
माइ री माइ साँवरे रंग रांची
मीरा का विवाह
मीरा के दादा रावदुदा जी की मृत्यु के पश्चात मीरा के विवाह का प्रस्ताव आया क्योंकि मीरा के दादा ने कहा था की बेटी मैं जब तक हूं तब तक तुम्हारा विवाह नहीं होगा। इसलिए एक बार मीरा की माता ने मीरा के समक्ष कुमार भोजराज से विवाह की सहमति के विषय में बताया विवाह की बात सुनकर मीरा खूब रोइ और अपनी गिरधर गोपाल से सारी बातें कह डाली। किंतु मीरा ने प्रभु की आज्ञा समझकर और पिता का सम्मान करते हुए विवाह के लिए हां कह दिया। संसार की दृष्टि में मीरा भँवर ले रहीं थीं कुमार भोजराज के साथ लेकिन वस्तुतः एक भक्त की दृष्टि से मीरा भँवर अपने गिरधर गोपाल के साथ ले रहीं थीं।
कहते हैं अगर भक्त अपने भगवान के प्रति पूणतः समर्पित हो, दृढ़ विश्वास हो , ईश्वर के प्रति अनन्य प्रेम हो तो भगवान भी अपने भक्त के लिए प्रकृति के विधान को भी बदल देते हैं। जैसा की मीरा के पति कुंवर भोजराज ने विवाह के पूर्व ही मीरा को वचन दे दिया था कि अपने इष्ट के समक्श – की कभी आजीवन मेरी कोर की अंगुली भी आपका स्पर्श नहीं करेगी अतः मेरा मन भी आपका स्पर्श नहीं करेगा। कुंवर भोजराज मीरा को एक भक्त के नजरिए से देखते उनकी दृष्टि सदैव मीरा के चरणों में ही रहती थी वह एक मित्र की भांति रहते थें।
मीरा के ससुराल वालों का व्यवहार
कृष्ण भक्त मीराबाई जब अपने ससुराल में गईं तब उनकी सास उन्हें कुलदेवी को प्रणाम करने को कहां मीरा अपने सिर को ना में हिलाते हुए उत्तर देतीं हैं। मेरे पास एक मन था और वो मेरे प्रियतम गिरधर गोपाल का है अब किसी और अन्य देवी-देवता के सामने नहीं झुकता। मीरा की बात सुनकर उनकी सास क्रोध से लाल पीली हो गई और अपने पुत्र भोजराज से कहतीं हैं ये कैसी वधू उठाकर लाया जो प्रथम दिन ही मेरी बात की अवज्ञा कर दी तो भोजराज अपनी माता को एक सुंदर सा जवाब देते हैं की राजमाता ! भक्त की बात तो भक्त ही जाने मुझे तो कुछ नहीं ज्ञात।

मीरा प्रथम दिन ही अपने ससुराल वालों की नजर में बुरी बन गई थी मीरा अपने मस्तक कुलदेवी के समक्ष झुका देती किंतु कहते हैं ना भक्त की बात केवल भक्त ही जाने कोई सर्वत्र में अपने प्रभु का दर्शन करता है तो कोई अपने इष्ट में ही सब का दर्शन करता है।
एक बार भोजराज ने मीराबाई के कहने पर महल के भीतर मंदिर बनवा दिया ताकि मीरा को साधु संत का अभाव न हो लोगों ने जब सुना तो कुंवर भोजराज का विरोध करने लगे की क्या कल के आई कन्या के सम्मुख इतने निस्तेज हो गए हैं कि लोक लाज की मर्यादा का कोई विचार नहीं है । अब क्या महल के भीतर संत आएंगे पर मीराबाई को संसार के किसी अवरोध का प्रतिरोध का उनके हृदय पर कोई प्रभाव नहीं मानो उनके जीवन का उद्देश्य निश्चित है कि इसी जन्म में श्री कृष्ण के चरणों की दासी होना है पुकारते रहना है जब तक प्रभु उत्तर ना दे।
मीरा के पति भोजराज की मृत्यु
मीरा के हृदय का उन्माद जैसे-जैसे बढ़ता जा रहा था वैसे-वैसे ही संसार छूटता जा रहा था एक दिन ऐसा आया महाराज भोजराज को रण में लगे घाव के कारण अस्वस्थ हो गएं। बड़ा ही शीघ्र ऐसा छण आया कि भोजराज अपनी अंतिम सांस ले रहे थे। आज मीरा बाई आपने किसी अन्य भाव में खोई थी। मीराबाई ने आज सोलह श्रृंगार धारण करके भोजराज की सिराहने बैठी थी मीराबाई भोजराज को अपना मित्र अपना सखा ऐसा भाव रखती थी भोजराज ने मीरा के भजन और साधन और साधु-संग बड़ी अनुकूलता प्रदान की है।
भोजराज सैया पर लेटे हुए मीराबाई की ओर दृष्टि करके कैसे कहने लगे मीराबाई आप भी जानती हैं और मैं भी जानता हूं कि आपका और मेरा संग बस कुछ ही क्षण है। क्या इस अंतिम समय में भी इस दास पर कृपा नहीं होगी।(मित्रों ऐसी दीनता, ऐसा सदभाव भरी वाणी केवल एक भक्त ही कह सकता है साधारण संसारी व्यक्ति नहीं मीराबाई और कुंवर भोजराज का संबंध भी कुछ ऐसा ही था।)
भोजराज ने कहा अंतिम घड़ी है इसलिए सत्य का आधार लेकर मुझे जाने दीजिए इस संसार से क्या इस अंतिम घड़ी में भी आप कृपा नहीं करेंगी क्या आप अपना वर्दहस्त मेरी मस्तक पर नहीं रखेंगी। तब मीराबाई ने भोजराज के मस्तक पर अपना हाथ रखा और दृष्टि से दृष्टि मिली कुंवर भोजराज को मीरा के नेत्रों में झांकने वाला रूप भोजराज को प्रत्यक्ष हो गया मीराबाई के नेत्रों में प्रभु का सुंदर रूप देखते-देखते भोजराज ने सदा-सदा के लिए अपनी आंखें मूंद ली।
तत्पश्चात घर की बूढी-बड़ी औरतें आती हैं मीरा का श्रृंगार उतारने के लिए मीरा श्रृंगार उतरने से मना कर देती हैं तभी उनकी नंद ऊदाबाई आती है और मीराबाई को कहते हैं तुम्हारे जैसी कलंकिनी, तुम्हारे जैसी कुलटा, तुम्हारे जैसी अचार हीन, और तुम्हारे जैसी संस्कार हीन स्त्री मैंने आज तक नहीं देखी। किसने क्या कुछ नहीं कहा मीरा किन्तु मीरा शांत सब कुछ सहती रहीं क्यूंकि उनके गिरधर गोपाल तो उनके साथ सदा रहते थे। मीरा मन ही मन केहती हैं……
घायल की गति घायल जाणे के जिण घायल होय
गगन मंडल पे सेज पिया की किस विध मिलणा होय
सूली ऊपर सेज हमारी किस विध मिलणा होय
ऐरी मैं तोह दर्द दी दीवानी मेरो दर्द ना जाणे कोय
मीरा बाई को मारने का षड्यंत्र
भोजराज की मृत्यु के पश्चात राणा विक्रमादित्य गाड़ी पर बैठे विक्रमादित्य मीरा को मारने का षड्यंत्र रचा उन्होंने एक भूखा शेर उनकी द्वार देहली पर छोड़ दिया। मीराबाई को जब पता चला तो उन्होंने कहा मेरे हृदय के कुंज में मेरे प्रभु के सिवा कोई आ सकता है क्या भला उन्होंने जो वैजयंती माला और नैवेद्य एवं आरती का थाल अपने गिरधर के लिए सुसज्जित किया था उसे लेकर उस भूखे शेर के पास गयीं।
शेर ने जब मीराबाई का दर्शन किया तो वह स्वतः ही शांत हो गया मीराबाई उस सिंह के पास गई और जो वैजयंती माला अपने प्रभु के लिए बनाया था उसे सिंह के कंठ में डाल दिया और मीराबाई ने नैवेद्य की थाली से मोदक उठाया उस भूखे शेर के मुख में डाल दिया जैसे कोई गौ को प्रेम से गौचर खिलता हो। शेर को भरपेट खिलाने के पश्चात उन्होंने जो आरती का थाल लिया था उन्होंने उस सिंह की आरती उतारा। मीराबाई कहती है संसार के किसी भाव – कुभाव में तथा सदभाव में ऐसा सामर्थ्य नहीं की मेरे तन का मेरे मन का स्पर्श कर सके।
सब चकित रह गए और जाकर राणा विक्रमादित्य को बताया उसने कहा अवश्य ही कोई जादूगरनी है कोई मंत्र-तंत्र जानती है इसलिए मनुष्यों को तो क्या पशुओं को भी अपने वश में कर लेती है। उदाबाई गई मीराबाई को समझने के लिए कि किसी दिन बार-बार प्राण लेने की योजना का रहस्य खुल जाएगा तो बड़ा ही अपमान होगा उदा मन ही मन सोचती हुई मीराबाई के पास जाकर कहतीं हैं बाईसा अब ये कुंवर भोजराज नहीं है ये राणा विक्रमादित्य है सभी का स्वभाव एक सा नहीं होता मैं आपकी अपनी हूं इसलिए आपसे निवेदन करने आयीं हूँ। ये साधु के संग उघरें सिर नाचना छोड़ दीजिए।
महल की और भी रानियां है सबके पीहर से सजे – संवरे सुंदर-सुंदर भेंट आते हैं और आपके यहां से कौन आता है यह सिर्फ मूड़ों की मंडलियां जो तंगडे-तम्बूरे उठाते हैं और महल के भीतर हो- हल्ला करके चले जाते हैं यही संस्कार लेकर आई थी आप। उदा ने अंत में कहा यदि राणासा क्रोध में आ गए तो आपके प्राणों पर बन आएगी।

मीरा बाई उदा की ओर बिना देखे ताम्पुरा उठाती हैं और एक पद गातीं हैं जिसका अर्थ है –“अगर राणा जी रूठे तोह क्या कर लेंगे मैं तोह हरी गुण गाती अगर राजा रूठ जाए तोह अधिक से अधिक बेघर कर देंगे राज्य से निकाल देंगे साधन हीं कर देंगे किन्तु अगर तीनो लोकों के नाथ रूठ गएँ मेरे प्रभु रूठ गए तोह मुझे कहाँ ठौर मिलेगी मुझे कहाँ स्थान मिलेगा” मीरा का उत्तर सुनकर उदा पैर पटकते हुए चली गयी।
दूसरी बार राणा ने एक पात्र में विष मिलाया और चरणामृत कहकर उदा से भेजवा दिया उदा हिचकिचाते हुए जातीं है मीरा जी के पास और कहती हैं बाईसा ये जगन्नाथ जी का चरणामृत है आपके लिए। मीरा जब सुनतीं हैं चरणामृत है मेरे प्रभु का उसे समर्पित कर जैसे ही विष का प्याला मुख के पास लगातीं हैं उदा रोक देती है और कहतीं हैं बाईसा इसे मत पीजिये इसमें विष है। मीरा बाई की निश्चलता देख उदा के मन ने रोक दिया। उदा के मना करने पर भी मीरा जी ने उस विष भरे पात्र को चरणामृत मानकर पी गयीं। पात्र का विष पीते ही मीरा के अंगों की आभा-प्रभा और बढ़ गयी। आज उदा को विश्वास हो गया की मीरा बाई केहनो को मीरा हैं होने को तोह वो कृष्ण को बांधने वाली हैं ये तो कृष्ण प्रेम की अधिकारिणी हैं उदा वहां से चली गयीं।
मीरा बाई का वृन्दावन आगमन
मीरा बाई ने एक पत्र लिखा तुलसी दास जी को उन्होंने उत्तर में लिखा की ” जाके प्रिय ना राम-वैदेही ; ताजिये ताहि कोटि बैरिसम जद्यपि परम सनेही “ ( अर्थात कितना ही कोई स्नेही क्यों न हो अगर भजन में कोई सहायक नहीं है और आध्यात्मिक उन्नति में कोई बाधक हो रहा है तोह उसी समय उसका परित्याग कर देना चाहिए यदि उद्देश्य शुद्ध और निश्चित है तो ) अब मीरा बाई को एक संत की आज्ञा मिल गयी थी उनके प्रश्नो का उत्तर मिल गया अब वे निश्चित हो गयीं।

मीराबाई अब वृंदावन की ओर चल दी उन्होंने सुना की वृंदावन में परम भागवत महान भक्त जीव गोस्वामी जी हैं ऐसे भक्त का तो दर्शन करना चाहिए मीराबाई दर्शन की अभिलाषा लेकर श्री जीवगोस्वामी के पास गयीं किसी ने गोस्वामी जी से कहा कि कोई राजपूतानी आयीं हैं आपका दर्शन करने गोस्वामी जी ने कहा कि मैं स्त्रियों से नहीं मिलता मीरा जी ने सुन लिया और कुटिया के बाहर से ही खड़ीं उत्तर देतीं हैं मैं तो आज तक यही जानती थी की “परम पुरुष मेरे नंदनंदन हैं और सकल बृज नारी” अर्थात परम पुरुष तो केवल कृष्ण है यह कृष्ण की साझेदारी करने वाले दूसरे पुरुष कौन आ गए।
जीव गोस्वामी ने सुना और दौड़ते गयें बिना कुछ देखे कि सामने कौन है मीराबाई के चरणों में आकर गिर गयें। मीरा जी ने कहा कि मैं प्रत्येक दृष्टि से आपका आशीर्वाद ग्रहण करने योग्य हूँ मैं तो आपके श्री चरणों का रज अपने मस्तक पर धारण करके मैं स्वयं को धन्य करने आई थी आपका दर्शन हुआ जीवन धन्य हुआ।
मीराबाई द्वारकाधीश में समां गयीं
मीरा बाई वृंदावन से द्वारका पहुंच गई द्वारका में मीराबाई द्वारकाधीश का नित्य -दिनप्रतिदिन दर्शन करतीं थी। उधर जब मीराबाई ने मेवाड़ का त्याग किया तो मेवाड़ में सूखा पड़ने लगा प्रकृति का महा भयंकर कोप की प्राणी जल के बिना तिल-तिल करके मृत्यु को प्राप्त हो रहें थे। “साधु अवज्ञा तुरत भवानी , कर कल्याण अखिल कय हानि” भक्त का अपमान यदि किसी से मन वचन भक्त कर्म एवं वाणी से किसी भक्त का हृदय पीड़ित हो जाता है तो उसी क्षण उसका पुण्य एवं सब कुछ नष्ट हो जाता है।
विक्रमादित्य को अब समझ में आ गया था इसलिए ब्राम्हणों के कहने पर उसने मीराबाई को लौटाने के लिए उसने सौ ब्राम्हणों को भेजें। ब्राम्हण गए मीराबाई के पास मीराबाई से निवेदन किया परंतु मीराबाई ने कहा अब संसार की गली में लौटना मेरे लिए संभव नहीं है। अब तो मैं अपने प्रभु के चरणों में पड़ी पल-पल प्रतीक्षा कर रही हूं की जाने कौन सी घड़ी आए और मेरे प्रभु मुझे स्वीकार कर अपने साथ ले जाएंगे।

मीराबाई की बात सुनकर सभी ब्राह्मण ने अन्नशन ले लिया अर्थात अन्नशन-जल का त्याग कर दिया मीराबाई बड़ी दुविधा में पड़ गईं कि मेरे कारण सौ ब्राह्मण भूखे-प्यासे प्रभु के द्वार पर पड़े हैं मुझे ब्रह्म हत्या का पाप लगेगा ।मीराबाई द्वारकाधीश के पास जाकर पूछतीं हैं ये सौ ब्राम्हण आये हैं मेवाड़ से अब मई क्या करूँ द्वारकाधीश ने कहा तोह चली जाओ लौट जाओ संसार में द्वारकाधीश की बात सुनकर आज मीरा बाई का सब्र का बांध टूट गया। द्वारकाधीश को उलाहना देते हुए एक अंतिम पद में कहाँ उन्होंने….
ग्वालड़ा तू क्या जाणे प्रेम की प्रीत तेरे लिए जीवन भर भटकी जाणे कौन्सी प्रताडना कौन्सी पीड़ा कौन्सी प्रतिकूलता मैंने तेरे लिए नहीं सही जीवन भर तुमने मेरे ह्रदय में आशा का दीप जलाकर रखा संसार के तूफानों से भी तुम ही ने संभालकर रखा कभी बुझने नहीं दिया आज जब मुझे स्वीकार करने का समय आया है तो ये कहकर मेरे प्रेम का अनादर कर रहे हो की संसार में लौट जाओ।
ऐसा लगा मनो द्वारकाधीश मीराबाई का ये प्रेम भरा उलाहना सुनना चाहते थे । जो सौ ब्राम्हण द्वार पर बैठे थे और अन्य भक्तगणों के देखते ही देखते द्वारकाधीश ने अपने दोनों बाँह फैलाकर मीरा बाई को अपने श्री विग्रह में अंगीकार कर लिया। ऐसीं हैं हमारी कृष्ण भक्त मीराबाई की अद्भुत कहानी मित्रों भक्तिमति मीरा बाई के जीवन में और भी घटनाएं घटित हुई हैं जो यहाँ पर पूर्ण रूप से बताना संभव नहीं किन्तु फिर भी मैंने प्रयास किया है की कहानी को आपको विस्तृत रूप से बताऊ।

आशा करती हूँ आपको ये कथा पढकर आनंद आया हो और आपको भक्ति के कुछ गुण सीखने को मिला हो और एक भक्त के जीवन में आने वाली संघर्षों एवं घटनाओ के बारे में ज्ञात हुआ हो। अगर भक्त एक बार भगवान् के चरणों में स्वयं को समर्पित कर दे तो भगवान अपने भक्त का साथ कभी नहीं छोड़ते। आगे किस भक्त के बारे में पढना चाहेंगे हमें कमेंट में बताएं धंन्यवाद।
अगर आपको भगवान श्री कृष्ण की लीलाओं के बारे में सुनना हो तो आप हमारे You tube channel पर जा सकते हैं link – Amrit-Gaatha
Jai Shri Krishna
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