भक्त प्रहलाद की कहानी ऐसी है जो भारत के सभी महान भक्तों में प्रेरणादाई कहानी है। जिस प्रकार कमल कीचड़ में रहते हुए भी अपने आप को कीचड़ से स्पर्श नहीं होने देता ठीक उसी प्रकार भक्त प्रहलाद जी का जन्म असुर कुल में हुआ था । उसके पश्चात भी उन्होंने अपनी भक्ति को बनाए रखा उन्हें अनेकों यातनाएं सहनी पड़ी उनके अपने पिता ने ही उन्हें मारने को अनेको प्रयास किये । 5 वर्ष के नन्हे से बालक भक्त प्रह्लाद अपने ईश्वर के प्रति प्रेम और भक्ति को कभी कम नहीं होने दिया । ईश्वर के प्रति अपार प्रेम और दृढ़ विश्वास के कारण भगवान् भी साक्षात् प्रकट हो गए अपने भक्त की रक्षा के लिए । आईये हम उन महान भक्त प्रह्लाद की कहानी के बारे में जानेंगे और उनके जीवन से कुछ प्रेरणाएं प्राप्त कर अपने जीवन को सात्विक एवं सरल बनाएं ।
“मेरी आपसे विनम्र निवेदन है की आप इस कथा को पढते वक्त अपने नेत्रों के अंतर दृश्य में इस कहानी को देखते हुए पढ़े आपको आनंद आएगा”।
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भक्त प्रहलाद
भक्त प्रहलाद की कहानी में सर्वप्रथम हम उनके परिवार के बारे में जानेंगे। महर्षि कश्यप ने अपनी पत्नी दीति के गर्भ से हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र हुए एवं सिंहका और होलिका नामक दो पुत्री को जन्म दिया। प्रहलाद के पिता का नाम हिरण्यकश्यप और माता का नाम कयादु था प्रहलाद जी के और तीन भाई थे जिनके नाम अनुहल्लाद , हल्लाद और संहल्लाद हैं। भक्त प्रहलाद विष्णु जी के भक्त हैं हिरण्यकश्यप के वध के बाद ही असुर साम्राज्य के राजा बने थे । भक्त प्रहलाद के महान पुत्र विरोचन हुए और विरोचन से महान राजा बलि का जन्म हुआ।
हिरण्यकश्यपु की तपस्या
भक्त प्रहलाद की कहानी विष्णु पुराण में वर्णित एवं अन्य ग्रंथो के अनुसार सतयुग के अंत में महर्षि कश्यप और उनकी पत्नी दिति के दो पुत्र हुए । जिनके नाम हिरण्यकश्यप थे एवं हिरण्याक्ष । हिरण्यकश्यप को अपने भाई की मृत्यु के पश्चात श्री हरि पर अत्यंत क्रोधित हुआ और निश्चय किया कि मैं अपने भाई का बदला लेकर रहूँगा तत्पश्चात अपने आप को अजय एवं अमर बनाने के लिए वह हिमालय पर जाकर कठिन तपस्या करने लगा उसने सहस्त्र वर्षों तक उग्र तप किया और ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया। ब्रह्मा जी वरदान मे मांगा कि मेरी मृत्यु ना तो किसी अस्त्र से हो ना शास्त्र से , ना ब्रह्मा द्वारा निर्मित किसी प्राणी से हो , ना भीतर हो ना बाहर हो , ना आकाश में मारा जाऊं और ना ही पृथ्वी पर।
दैत्यों की राजधानी पर आक्रमण
जब हिरण्यकश्यप तपस्या करने चला गया था तभी सभी देवताओं ने दैत्यों की राजधानी पर आक्रमण कर दिया था। कोई नायक ना होने के कारण सभी दैत्यों ने हार मानकर चारों दिशाओं में भाग गए। परिस्तिथि का लाभ उठाते हुए देवताओं ने भी दैत्यों की राजधानी को लूट लिया। तब देवराज इंद्र ने हिरण्यकश्यप की पत्नी कयादु को भी बंदी बना लिया और स्वर्ग की ओर प्रस्थान करने लगे तभी रास्ते में देवर्षि नारद जी मिले उन्होंने इंद्र को रोका और कहा कि तुम दैत्य राज की पत्तिव्रता पत्नी को मत ले जाओ।
तब इंद्र ने बताया की कयादु गर्भवती है उसकी जब संतान हो जाएगी तब उसके पुत्र का वध करके उसे छोड़ दिया जाएगा । तब नारद जी ने कहा इसके गर्भ में भगवान का परम भक्त है तथा उससे देवताओं को कोई भय नहीं है उस भागवत को मारा नहीं जा सकता तब इंद्र ने देवर्षि की बात मान ली वे कयाधु के गर्भ में भगवान का भक्त है यह सुनकर उसकी परिक्रमा करके अपने लोक की और प्रस्थान किया ।
गर्भस्थ बालक प्रहलाद को नारद जी द्वारा भागवत भक्ति का उपदेश
जब कयादु देवराज के बंधन से छोड़ दी गई तब वह देवर्षि के ही आश्रम में आकर रहने लगी उनके पति जब तक तपस्या से न लौटे उनके लिए दूसरा निरापद आश्रय नहीं था। नारद जी भी उसे अब पुत्री की भांति ही मानते थे और बराबर गर्भस्थ बालक को लक्ष्य करके उसे भगवतभक्ति का उपदेश किया करते थे। गर्भस्थ बालक प्रह्लाद ने भी उन उपदेशों को ग्रहण कर लिया भगवान की कृपा से वह उपदेश फिर भूला नहीं ।

वरदान पाकर हिरण्यकश्यप जब लौटा तब उसने सभी देवताओं को जीत लिया सभी लोकपालों को जीत कर उनके पदों का स्वयं उपभोग करने लगा । उसे भगवान से घोर शत्रुता थी अतः ऋषियों को वह कष्ट देने लगा यज्ञ आदि और सभी धर्म से जुड़ी सारे कार्य बंद करवा दिए थे । वह धर्म का घोर विरोधी था उसके गुरु शुक्राचार्य उस समय तप करने चले गए थे। इसलिए उसने अपने पुत्र को अपने गुरु पुत्र शंड तथा अमरक के पास शिक्षा पाने के लिए भेज दिया। प्रहलाद उस समय 5 वर्ष के ही थे।
एक दिन जब वे गुरुकुल से जब वह घर को आए तब माता ने उनको वस्ञहरणों से सजाया और प्रह्लाद ने पिता के पास जाकर उन्हें प्रणाम किया । तब हिरण्यकश्यप ने प्रसन्न होकर प्रहलाद को अपनी गोद में बैठा लिया और स्नेहपूर्वक उनसे उसने पूछा – पुत्र तुमने जो कुछ पढ़ा है उसमें से कोई अच्छी बात मुझे भी सुनाओ तो। तब प्रहलाद जी ने कहा —
“पिताजी संसार के सभी प्राणी असत संसार में आसक्त होकर सदा उद्विग्न रहते हैं मैं तो सबके लिए यही अच्छा मानता हूं कि अपना पतन करने वाले जलहीन अंधकूप के समान घरों को छोड़कर मनुष्य वन में जाकर श्री हरि का आश्रय ले “।
हिरण्यकश्यप जोर से हंसने लगा उसे लगा कि किसी शत्रु ने मेरे बच्चे को बहका दिया है उसने अपने गुरु पुत्रों को सावधान किया कि वह प्रहलाद को सुधारे और दैत्य कुल के उपयुक्त अर्थ ,धर्म , काम का उपदेश दे तत्पश्चात गुरु पुत्र प्रहलाद को अपने यहां ले आए।
प्रहलाद का पुनः दैत्य गुरुकुल में आगमन
जब गुरु पुत्र प्रहलाद को अपने साथ लाएं तो गुरु पुत्रों ने उन्हें बहुत डाटा धमकाया और वह प्रहलाद को अर्थशास्त्र ,दंड नीति , राजनीति आदि की शिक्षा देने लगे । प्रहलाद गुरु द्वारा पढ़ाई गई विद्या को ध्यानपूर्वक सीखते थे वह गुरु का कभी अपमान नहीं करते थे और ना ही उन्होंने विद्या का तिरस्कार किया पर उस विद्या के प्रति उनके मन में कभी आस्था नहीं हुई गुरु पुत्रों ने जब उन्हें भली-भांति सूशिक्षित समझ लिया तब दैत्य राज के पास ले गए ।
हिरण्यकश्यप ने अपने नन्हे से प्यारे पुत्र को गोद में बिठाकर फिर पूछा उसने कहा पुत्र — तुम अपनी समझ से उत्तम ज्ञान क्या मानते हो बताओ —- “तब प्रहलाद जी ने कहा भगवान के गुण एवं चरित्र का श्रवण , उनकी लीलाओं तथा उनके नाम का कीर्तन , उन मंगलमय का स्मरण , उनके श्री चरणों की सेवा , उन परम प्रभु की पूजा , उनकी वंदना , उनके प्रति दास्य भाव, और साख्य भाव तथा उन्हें आत्म निवेदन—– यही नवधा भक्ति है इस नवधा भक्ति के आश्रय से भगवान में चित लगाना ही समस्त अध्ययन का सर्वोत्तम फल मैं मानता हूं ।
नन्हे से बालक के मुख से उत्तर सुनकर हिरण्यकश्यप तो क्रोध से लाल पीला हो गया उसने गोद से प्रहलाद को धक्का देकर भूमि पर पटक दिया । और गुरु पुत्रों को हुए उसने डांटते हुए कहा तुम लोगों ने मेरे पुत्रों को उल्टी शिक्षा देकर शत्रु का व्यवहार किया है ।तब गुरु पुत्रों ने बताया कि इसमें हमारा कोई दोष नहीं है ।
इधर नन्हा बालक प्रहलाद पिता द्वारा तिरस्कृत होकर भी शांत खड़े थे उन्हें कोई क्षोभ नहीं था। (“कितना अद्भुत रहा होगा वह दृश्य की इतनी अपमान के बावजूद भी उस नन्हे बालक में अपने पिता के प्रति लेश मात्र भी क्रोध नहीं था मित्रों भक्त प्रह्लाद की कहानी से हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता है”)।
प्रहलाद के प्रति हिरण्यकश्यप की क्रूरता एवं उन्हें मारने की करने की योजनाएं बनाना
इसके पश्चात भी प्रहलाद जी ने फिर कहा पिताजी ! आप रुष्ट ना हो गुरु पुत्रों का कोई दोष नहीं है “जो लोग विषयासक्त हैं घर परिवार के मोह में जिनकी बुद्धि बंधी है । वह तो उगले हुए खाने के समान है नर्क में ले जाने वाले विषयों को जो बार-बार भोगे गए हैं उन्हें सेवन करने में लगे हैं। उनकी बुद्धि अपने आप या दूसरों की प्रेरणा से भी भगवान में नहीं लगती“। नन्हा सा बालक अपने पिता त्रिभुवनविजय दैत्य राज के सामने निर्भय होकर इस प्रकार उनके शत्रु का पक्ष लेते हुए जब उत्तर दे रहे थे । यह सुन हिरण्यकश्पयू क्रोध से तिलमिला गया और अपने सभासद दैत्यों को बुलाकर आज्ञा दी इस दुष्ट को मार डालो । सभी असुरों ने भाले , त्रिशूल , तलवार आदि लेकर एक साथ चिल्लाते हुए प्रह्लाद पर टूट पड़े परंतु प्रहलाद निर्भयता के साथ खड़े रहे । उन्हें तो सर्वत्र अपने दयामय प्रभु ही दिखाई देते थे जब असुरों ने प्रहलाद पर अस्त्र-शास्त्र को बार-बार चलाया किंतु फिर भी उनके शरीर को कोई भी क्लेश नहीं हुआ । उनके शरीर से छूते ही सारे हथियार नष्ट हो जाते थे ।
तब क्रूर हिरण्यकश्यप ने अपने नन्हे से पुत्र को मारने का निश्चय कर लिया । उसने मतवाले हाथी के सामने हाथ पैर बांधकर प्रहलाद को डाल दिए पर हाथी ने उन्हें सूंड से उठाकर मस्तक पर बैठा लिया , कोठरी में उन्हें बंद किया गया और वहां भयंकर सर्प छोड़ दिए गए परंतु वे सर्प प्रहलाद के पास पहुंचकर केचुएं के समान सीधे हो गएँ और जब जंगली सिंह वहां छोड़ा गया तब वह पालतू कुत्ते के समान पूछ हिला कर प्रहलाद के पास जा बैठा। उसके पश्चात भी उन दैत्योंने प्रह्लाद के भोजन में उग्र विश दिया गया किंतु उससे उनके ऊपर कोई प्रभाव नहीं हुआ विश जैसे उनके उदर में जाकर अमृत हो गया हो ।

और अनेक दिनों तक भोजन तो क्या जल की एक बूंद तक प्रहलाद को नहीं दी गई थी । किंतु फिर भी वे शिथिल नहीं हुए उनका तेज और भी बढ़ता जा रहा था। उन्हें ऊंचे पर्वत से गिराया गया और पत्थर बांधकर समुद्र में फेंक दिया गया किंतु फिर भी उनकी भक्ति और दृढ़ विश्वास के कारण वे दोनों बार में सकुशल भगवननाम का कीर्तन करते हुए नगर में लौट आए।
प्रहलाद और होलिका की कथा
दैत्यराज हिरण्यकश्यप की एक बहन थी जिसका नाम होलिका था उसने तप करके एक वस्त्र पाया था । वह वस्त्र अग्नि में जलता नहीं था उसने प्रहलाद को मारने के लिए एक योजना बनाई ढेर सारी लड़कियों को एकत्र कर ऊंचा पर्वत बनाया गया और होलिका वह वस्त्र ओढ़ कर प्रहलाद को गोद में लेकर उस लकड़ी के ढेर पर बैठ गई और उसमें अग्नि लगा दी गई परंतु न जाने कैसे वह वस्त्र होलिका के अंग से उड़ गए जिस कारण होलिका अग्नि में जलकर भस्म हो गई। किंतु प्रहलाद अग्नि में बैठे हुए अपने पिता को समझा रहे थे।
पिताजी आप भगवान से द्वेष करना छोड़ दे तथा राम नाम का यह प्रभाव तो देखें कि यह अग्नि मुझे अत्यंत शीतल लग रही है । आप भी राम नाम ले और संसार के समस्त तापों से इसी प्रकार निर्भय हो जाएं । हिरण्यकश्यप ने प्रहलाद को मारने के लिए अनेकों मायाओं का प्रयोग किया किंतु उनके सामने कोई भी माया टिकती नहीं थी पलक उठते ही प्रहलाद के सामने से ही अपने आप नष्ट हो जाती ।
एक बार गुरु के पुत्रों ने प्रहलाद को मारने के लिए कृत्या को उत्पन्न किया किन्तु उस कृत्याने गुरु पुत्रों को ही उल्टा मार दिया प्रह्लाद ने भगवान की प्रार्थना करके गुरु पुत्रों को पुनः जीवित कर दिया। हिरण्यकश्यप ने अनेकों प्रयास कर किंतु फिर भी वह सफल नहीं हुआ।
भक्त प्रह्लाद अपने सहपाठी मित्रों को भगवन्नाम का उपदेश देते हुए
दैत्य राज हिरण्यकश्यप को अब भय लगने लगा था उसे लगा कि कहीं यह बालक मेरी मृत्यु का कारण ना बन जाए उसने गुरुपुत्रों के कहने पर प्रहलाद को वरुण पाश में बांधकर पुनः गुरुगृह भेज दिया। उसकी इच्छा थी की बालक शिक्षा तथा संगके प्रभाव से सुधर जाए। गुरुकुल में प्रह्लाद जी अपने गुरुओं की पढाई विद्या को पढ़ते तोह थे किन्तु उनका चित उसमें लगता नहीं था।जब दोनों गुरु अपने आश्रमके काम में लग जाते या बहार चले जाते , तब प्रह्लाद अपने सहपाठी बालकों को अपने पास बुला लेते।
जब दोनों गुरु अपने आश्रमके काम में लग जाते या बहार चले जाते , तब प्रह्लाद अपने सहपाठी बालकों को अपने पास बुला लेते एक तोह यह राजकुमार दूसरे इतने नम्र स्वाभाव के और सबसे स्नेह करने वाले थे की सभी बालक उनके बुलाने पर उनके समीप दौड़े चले आते। प्रहलाद जी बड़ी प्रेम से उन बालकों को समझते थे ‘मित्रों यह जन्म व्यर्थ नष्ट करने योग्य नहीं है यदि इस जीवन में भगवान को ना पाया गया तो बहुत बड़ी हानि होगी घर – द्वार स्त्री , पुत्र , राज्य- धन आदि तो दुख ही देने वाले हैं इनमें मोह करके तो नरक जाना पड़ता है।

अथवा इंद्रियों के विषयों से हटा लेने में ही सुख और शांति है भगवान को पाने का सबसे सरलतम साधन इस कुमार अवस्था में ही हो सकता है बड़े होने पर तो स्त्री, पुत्र ,धन आदि मोह मनको को बांध लेता है और भला वृद्धावस्था में कोई क्या ही कर सकता है।भगवान को पानी में कोई बड़ा परिश्रम भी नहीं है वे तो हम सबके हृदय में ही रहते हैं ।
सब प्राणियों में वे ही भगवान है अतः किसी प्राणी को कष्ट नहीं देना चाहिए मन को सदा भगवान में ही लगाए रहना चाहिए। उन सीधे-साधे दैत्य बालको पर प्रहलाद जी के उपदेशों का प्रभाव पड़ता था। जब शुक्राचार्य के पुत्रों ने यह सब देखा तो उन्हें बहुत भय हुआ और प्रहलाद को लेकर दैत्य राज हिरण्यकश्यप के पास ले जाकर सारी बातें बताई।
भक्त प्रह्लाद की रक्षा हेतु भगवान नृसिंह का प्रकट होना
गुरु पुत्रों की बात सुनकर हिरण्यकश्यप क्रोध से तिल – मिलाकर प्रहलाद को मारने का निश्चय कर लिया उसने गरजकर पूछा — ‘अरे मूर्ख ! तुम किसके बल पर मेरा बराबर तिरस्कार करता है ? मैं तेरा वध करूंगा कहां है तेरा वह सहायक वह अब तुझे आकर बचाए तो देखूं !’ प्रहलाद जी ने बड़ी नम्रता से उत्तर दिया पिताजी आप क्रोध न करें सबका बल उस एक निखिल शक्तिसिंधु के सहारे ही है।
मैं आपका तिरस्कार नहीं करता संसार में जीव का कोई शत्रु है तो उसका मन ही है उत्पथगामी मनको को छोड़कर दूसरा कोई किसी का शत्रु नहीं भगवान तो सब कहीं है वह मुझ में है ,आप में है आपके हाथ के इस खड्ग में है इस खंबे में है वह तो सर्वत्र है।
हिरण्यकश्यप ने चिल्लाते हुए कहा अच्छा तो तुम्हारा भगवान इस खंबे में भी है हिरण्यकश्यप ने प्रहलाद की बात पूरी होने नहीं दी। उसने सिंहासन से उठकर पूरे जोर से एक घुसा उस खंबे पर जोर से मारा घूंसे के शब्द के साथ ही एक भयंकर दूसरा शब्द हुआ जैसे सारा ब्रह्मांड फट गया हो । सब लोग भयभीत हो गए हिरण्यकश्यप भी इधर-उधर देखने लगा उसने देखा कि वह खंबा बीच से फट गया है और उस खंबे में से मनुष्य के शरीर एवं सिंह के मुंह की एक अद्भुत भयंकर आकृति प्रकट हो रही है। भगवान नृसिंह के प्रचंड तेज से दिशाएं जलसी रही थी।
वह बार-बार गर्जन कर रहे थे। दैत्यने बहुत उछल कूद की ,बहुत पैतरें बदले उसने; किंतु अंत में नृसिंह भगवान ने उसे पकड़ लिया और राज्यसभा के द्वार पर ले जाकर अपने जांघों पर रखकर नखों से उसका हृदय फाड़ डाला “ब्रह्मदेव की वरदान के अनुसार भगवान नृसिंह ने हिरण्यकश्यप को ना भीतर ना बाहर, न आकाश में ,न पृथ्वी पर, ना अस्त्र न शास्त्र , ना दिन में ना रात में अपितु उन्होंने तो संध्या बेला में अपनी जांघ पर रख कर अपने नाखूनों से और राज दरबार के द्वार पर हिरण्यकश्पयू का हृदय को फाड़ दिया था और वह मुक्ति को प्राप्त हुआ।
भक्त और भगवान का प्रेम
दैत्य राज हिरण्यकश्यप मारा गया किंतु भगवान नृसिंह का क्रोध शांत नहीं हुआ वह अभी भी बार-बार गर्जना कर रहे थे। वहां उपस्थित ब्रह्मा जी शंकर जी तथा दूसरे सभी देवताओं ने दूर से ही उनकी स्तुति की परंतु पास आने का किसी को साहस नहीं हुआ भगवती माता लक्ष्मी जी भी समक्ष जाने का साहस ना कर सकीं । वह भी भगवान का वह विकराल क्रोध रूप देखकर डर गई अंत में ब्रह्मा जी ने प्रहलाद जी को भगवान नृसिंह को शांत करने के लिए उनके पास भेजा।
प्रहलाद निर्भय भगवान के पास जाकर उनके चरणों पर गिर गए भगवान ने स्नेह से उन्हें उठाकर अपनी गोद में बैठा लिया मैं बार-बार अपनी जीभ से प्रहलाद को चाटते हुए कहने लगे — ‘पुत्र प्रहलाद ! मुझे आने में बहुत देर हो गई तुझे बहुत कष्ट सहने पड़े तू मुझे क्षमा कर दे’।

नन्हे से प्रहलाद जी का कंठ भर आया आज त्रिभुवन के स्वामी उनके मस्तक पर अपना अभय कर रख कर उन्हें स्नेह से चाट रहे थे । प्रहलाद जी धीरे से उठे उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर भगवान की स्तुति की और बड़े ही भक्ति भाव से उन्होंने भगवान का गुणगान किया अंत में भगवान ने उनसे वरदान मांगने को कहा ।
तब प्रहलाद जीने कहा हे प्रभु ! आप वरदान देने की बात करके मेरी परीक्षा क्यों लेते हो जो सेवक स्वामी से अपनी सेवा का पुरस्कार चाहता है वह तो सेवक नहीं व्यापारी है आप तो मेरे उदार स्वामी है आपको सेवा की अपेक्षा नहीं है और मुझे भी सेवा का कोई पुरस्कार नहीं चाहिए। मेरे नाथ मेरे प्रभु यदि आप मुझे शुद्ध वरदान ही देना चाहते हैं तो मैं आपसे यही मांगता हूं कि मेरे हृदय में कभी कोई कामना ही ना उठे।

फिर प्रहलाद जी ने भगवान से प्रार्थना की मेरे पिता आपकी और आपके भक्त मेरी निंदा करते थे और वे इस पाप से से छूट जाए।भगवान ने कहा प्रह्लाद ! जिस कुल में मेरा भक्त होता है वह पूरा कुल पवित्र हो जाता है। तुम जिसके पुत्र हो वह तो मेरा परम पवित्र हो चुका है तुम्हारे पिता तो 21 पीढ़ियों के साथ पवित्र हो चुके हैं।
मेरा भक्त जिस स्थान पर उत्पन्न होता है वह स्थान धन्य है जाता है ,वह पृथ्वी तीर्थ हो जाती है , जहां मेरा भक्त अपने चरण रखते हैं । भगवान ने वचन दिया कि अब मैं प्रहलाद की संतानों का वध नहीं करूंगा । कल्पपर्यन्त के लिए प्रहलाद जी अमर हुए भक्त राज अपने महा भागवत पौत्र बालिके के साथ अब भी सुतल में भगवान की आराधना में नित्य तन्मय में रहते हैं। मित्रों तोह ऐसी है भक्त प्रह्लाद की कहानी ।
आशा करती हूँ आपको ये कथा पढकर आनंद आया हो और आपको बहुत कुछ सीखने को मिला हो आगे किस भक्त के बारे में पढना चाहेंगे हमें कमेंट में बताएं धंन्यवाद।
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